बहुधा हम सबको मतिभ्रम हो जाता है। इस मतिभ्रम का अर्थ है कि वास्तव में जो वस्तु नहीं होती, किसी और वस्तु में उसके होने का अहसास हमें होने लगता है। जैसे साँप को रस्सी समझ लेना अथवा रस्सी को ही साँप समझकर डर के कारण चिल्लाने लग जाना। अंधेरे स्थान पर किसी और के होने की कल्पना करके डरने लग जाना। बैठे-बैठे बिना किसी कारण अचानक चौंक जाना। इन सभी काल्पनिक मनोभावों को हम मतिभ्रम की श्रेणी में रख सकते हैं।
इस मतिभ्रम के कारण कभी-कभी हमें लगने लगता है कि हमारे पास शायद कोई है अथवा हमारे पास से कोई गुजरा है। यानि कि हमने किसी परछाई को देखा है। कभी-कभी हम अनावश्यक अनिष्ट की कल्पना भी इसी मतिभ्रम के कारण करने लगते हैं। साधारण भाषा में इसे हम अपने मन का वहम अथवा नजरों का धोखा भी कह सकते हैं।
सुप्रसिद्ध रामायणी कथा के कथाकार महाकवि तुलसीदास जी को भी ऐसा ही मतिभ्रम हो गया था जब वे मायके गई हुई अपनी पत्नी के पास अंधेरे में खिड़की के रास्ते गए थे। उस खिड़की पर एक साँप लटक रहा था। तुलसीदास जी उस साँप को रस्सी समझकर उसके सहारे से कमरे में चले गए। उनकी पत्नी ने उन्हें उस समय ताना दिया कि मेरे प्यार में अंधे होकर, साँप को रस्सी समझकर तुम मेरे पास चले आए, यदि ईश्वर से ऐसी लौ लगाई होती तो बेड़ा पार हो जाता।
तुलसीदास जी के जीवन का टर्निंग प्वाइंट था यह। दुनिया से विरक्त होकर साधना करते हुए जनमानस में लोकप्रिय, देश-विदेश में समान रूप से पूजनीय, घर-घर में श्रद्धापूर्वक गाई जाने वाली रामायणी कथा के रचयिता बनकर वे सदा के लिए इतिहास में अमर हो गए।
जब तक यह भ्रम एक सीमा तक रहे तब तक ठीक रहता है। इसके बढ़ जाने पर मनुष्य वहमी हो जाता है। वह एक ही ट्रेक पर चलने लगता है। खाने बैठेगा तो खाता चला जाएगा। हाथ धोने लगेगा तो हाथ धोता ही चला जाएगा। नहाने लगेगा या साबुन को घिसने लगेगा तो घंटों नहाता रहेगा अथवा साबुन घिसता ही चला जाएगा। कभी-कभी मनुष्य के मन में यह भावना भी घर कर जाती है कि कोई उसे खाद्य पदार्थ या पेय पदार्थ में जहर देकर मार डालेगा। इसलिए वह किसी पर भी विश्वास नहीं करता।
कहने का तात्पर्य यही है कि इसकी अधिकता या अति हो जाने पर मनुष्य पागलपन की ओर कदम बढ़ाने लगता है। कब वह अपना मानसिक सन्तुलन खो देगा पता ही नहीं चलता। प्राय: ऐसे लोगों को अन्य जन या साथी पागल कहकर चिढ़ाने लगते हैं। इस कारण वे अपना आपा खोने लगते हैं, गाली-गलौच करते हैं और कभी-कभार मारपीट करने पर भी आमादा हो जाते हैं।
इस मतिभ्रम से बचने के उपाय किए जा सकते हैं। मनुष्य को अकेले बैठकर अनावश्यक विचार प्रवाह में डूबना-उतरना नहीं चाहिए। परिवारो जनों और मित्रों सबके साथ मिल-बैठकर अपनी समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए। अनावश्यक पिष्टपेषण करने से बचना चाहिए।
घर के सदस्यों का सहानुभूति पूर्वक व्यवहार मनुष्य को इस सकट से उबार सकता है। डाँटने-डपटने अथवा लानत-मलानत के स्थान पर प्यार से समझाकर उस मनुष्य को इस अवसाद या मतिभ्रम से बचाया जा सकता है।
यथासम्भव सज्जनों की संगति में रहना चाहिए। समय मिलने पर अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना। इससे मनुष्य का आत्मिक बल बढ़ता है। तब वह ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य से नहीं डरता। उसे मतिभ्रम होने की स्थिति से सामना करने की सामर्थ्य आ जाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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