यदि कोई बन्धु-बान्धव बहुत प्यार अथवा सम्मान से उपहार दे तो उसके मूल्य को नहीं आँकना चाहिए बल्कि उसे देने वाले की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए। जिस प्रेम से व्यक्ति ने उपहार दिया है, उसे उसी तरह से उसे ग्रहण करना चाहिए। यह आवश्यक नहीं है कि आपको वह पसन्द आ ही जाएगा।
वह चाहे मन को न भाए अथवा नहीं पर उपहार लाने वाले से मानपूर्वक लेकर, उसका धन्यवाद भी करना चाहिए। ऐसा किया गया व्यवहार व्यक्ति विशेष के स्वयं के संस्कारों को प्रदर्शित करता है। इससे उपहार लाने वाले व्यक्ति का मन प्रसन्न होता है कि जिसके लिए उपहार लिया उसे अच्छा लगा है।
मनीषी कहते हैं- 'मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना।' अर्थात हर व्यक्ति की रुचि अलग-अलग होती है। कल्पना कीजिए यदि सबकी रुचि एक जैसी हो जाए यानी हर तरफ एक ही रंग अथवा एक जैसी ही वस्तुएँ दिखाई देने लगे तो सब बोर हो जाएगा। इसीलिए संसार में भिन्नता में ही आनन्द मिलता है।
इससे यही अर्थ निकलता है जितने लोग उतनी पसन्द। हर व्यक्ति की सोच, उसकी पसन्द-नापसन्द दूसरों से अलग यानी विशेष होती है। इसलिए यह मानना कठिन होता है कि उसकी पसन्द की हुई वस्तु दूसरे को निश्चित ही रुचिकर लगेगी। हो सकता है उसकी लाई हुई वस्तु दूसरे को बिल्कुल ही न पसन्द आए अथवा वह पहले से ही उसके पास हो।
तथाकथित पैसे वाले अपने से कम पैसे वाले लोगों को यानी उनके अनुसार नीची हैसियत वालों से उपहार लेने में अपना अपमान समझते हैं। उन्हें लगता है कि फलाँ व्यक्ति की हमारे समक्ष कोई औकात नहीं है। वह अच्छी और मँहगी वस्तु नहीं खरीद सकता, वह तो निश्चित ही सबस्टैन्डर्ड वस्तु ही लाया होगा। चाहे वह बेचारा सामने वाले की हैसियत को देखते हुए चाहे कितना मँहगा उपहार खरीद कर लाया हो।
अपने अहंकार में चूर वे उसकी आँखों के सामने ही उपहार को बिना देखे सेवकों को दे देते हैं। इससे वह व्यक्ति बहुत ही आहत हो जाता है और अपमानित महसूस करता है। उनके इस व्यवहार से उसके मन को कितना कष्ट होता है, इसका वे अनुमान भी नहीं लगा सकते।
यदि किसी का लाया हुआ उपहार पसन्द नहीं आया या वह वस्तु पहले से ही घर में विद्यमान है तो भी उपहार प्रसन्नता पूर्वक लेना चाहिए। बाद में उसका उपयोग चाहे न करें अथवा किसी को दे दें परन्तु सामने से किसी का तिरस्कार करना किसी सभ्य व्यक्ति को कभी शोभा नहीं देता।
इस सार्वभौमिक सत्य को स्मरण करते रहना चाहिए कि समय सदा एक-सा नहीं रहता। कब भिखारी राजा बन जाए और कब राजा रंक बन जाए कोई भी नहीं कह सकता। यह सब भविष्य के गर्भ में छुपा रहता है। इसलिए मनुष्य को कदापि अनावश्यक ही मिथ्या अभिमान नहीं करना चाहिए।
हो सकता है कि जिसका उपहार लेते समय किसी व्यक्ति ने उसका उपहास किया गया था, कल को उसकी ही हैसियत उससे भी बढ़कर हो जाए। फिर उस समय अपनी झेंप मिटाने के लिए उसके सामने उसे बगलें झाँकनी पड़ सकती है या नजरें झुकानी पड़ सकती हैं।
हर व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और समझ के अनुसार अच्छा उपहार ही खरीदता है। वह बाजार में खरीददारी करने जाता है तो अपना अमूल्य समय और धन दोनों ही व्यय करता है। यदि किसी से उपहार लेने में नाक नीची होती है तो उस व्यक्ति विशेष को उचित समय देखकर समझाना चाहिए ताकि वह अपने धन को व्यय न करे और अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में लगाए।
अपने मिथ्या अभिमान के कारण आखिर समाज में किस-किस से सम्बन्ध बिगाड़ेंगे। ईश्वर ऐसे लोगों से नाराज होता है जो स्वयं को महान और अन्य सबको तुच्छ समझने की भूल करते हैं। इसे भूलना नहीं चाहिए कि उस मालिक ने किसी को भी दूसरे मनुष्यों के साथ भेदभाव करने का अधिकार नहीं दिया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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