सुकर्म या दुष्कर्म जैसा भी कर्म मनुष्य इस संसार में रहते हुए करता है, परमात्मा उसे उसी के अनुरूप फल देता है। यानी कि सुकर्मों के बदले सुख, समृद्धि और शान्ति आदि देता है। दुष्कर्मों के बदले उससे उसका सब कुछ छीन लेता है।
एक कथा आती है कि एक बार महारानी द्रौपदी प्रातःकाल स्नान करने के यमुना जी के घाट पर गई। उसी समय वहाँ विद्यमान एक साधु की ओर उसका ध्यान आकर्षित हुआ। उसके शरीर पर मात्र एक लंगोटी थी। स्नान के पश्चात साधु जब अपनी दूसरी लंगोटी लेने लगा तो अचानक ही हवा के झोंके से उड़कर वह पानी में गिर गई और बहने लगी। साधु ने जो लंगोटी उस समय पहनी हुई थी, संयोगवश वह फटी हुई थी।
अब साधु के सामने बहुत बड़ी समस्या आ गई कि अब वह क्या पहने? अपनी लाज कैसे बचाए? थोडी ही देर में सूर्योदय होने वाला है और तब यहाँ घाट पर लोगों के आवागमन से भीड़ बढ़ जाएगी।
परेशान साधु शीघ्रता से पानी के बाहर निकलकर पास की एक झाड़ी में छिप गया। द्रौपदी यह सारा दृश्य देख रही थी। उसे साधु की इस दीन दशा पर बहुत दुख हुआ। उसने उसकी सहायता करने का विचार किया। अपनी पहनी हुई साड़ी में से उसने आधी फाड़ी और उस साधु के पास गयी।
वह आधी साड़ी देते हुए द्रौपदी ने उस साधु से कहा - "महात्मन! मै आपकी परेशानी बखूबी समझ रही हूँ। इस वस्त्र को आप स्वीकार कर लीजिए और अपनी इज्जत बचाकर प्रस्थान कीजिए।"
साधु ने बहुत ही सकुचाते हुए साड़ी का वह टुकड़ा ले लिया और उसे बहुत से आशीष दिए- "जिस तरह बेटी आज तुमने मेरी लाज बचायी है, उसी प्रकार भगवान भी एक दिन तुम्हारी लाज बचाएँगे।"
समय बीतते युधिष्ठिर के द्यूतक्रीड़ा में हार जाने पर, गुरुजनों और सभासदों से भरी सभा में जब निर्लज्ज दुश्शासन रजस्वला द्रौपदी का चीरहरण कर रहा था, उस समय द्रौपदी की करुण पुकार को महर्षि नारद ने भगवान तक पहुँचाया।
परम न्यायकारी परमेश्वर ने कहा- "सभी जीवों पर मेरी कृपा शुभकर्मों के बदले ही बरसती है। द्रौपदी के खाते में क्या कोई पुण्यकर्म है?"
जाँचा परखा गया तो उस दिन साधु को दिया वस्त्र दान के हिसाब में पाया गया। जिसका ब्याज कई गुणा बढ चुका था। इसे चुकाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी की सहायता करने सभा में पहुँच गए। दुश्शासन चीर खींचता चला गया और वह वस्त्र प्रभु की कृपा से बढता ही चला गया।
कर्म करते समय मनुष्य उससे मिलने वाले परिणाम के विषय में कभी नहीं सोचता। यदि सोच ले तो अशुभ कर्म नहीं करे। कर्म करते समय उसे इस बात का नशा होता है कि वह सब कुछ देख लेगा। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता। देखने वाला तो वह मालिक है जो हमें मूर्खता करते समय चेतावनी देता है। किन्तु हम मनुष्य उसे सुनकर अनसुना कर देते हैं। जब उन पाप कर्मों का फल भुगतना पड़ता है तब तौबा बोल जाती है।
इस संसार में रहते हुए इन्सान यदि सुकर्म करता है तो उसका फल कई गुणा बढ़कर मिलता है। यदि वह दुष्कर्म करता है तो उसे चक्रवृद्धि ब्याज सहित उनको भोगना पड़ता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
'कर्मगति टारे नहीं टलती'
अर्थात कर्म की गति को यदि हम टालना चाहें तो वह असम्भव है। अपने शुभाशुभ कर्मों का कड़वा या मीठा फल तो जीव को हर हालत में भोगना ही पड़ता है।
समय रहते यदि हम सब मनुष्य चेत जाएँ तो फिर कष्टों और परेशानियों से मुक्ति मिल सकती है। अन्यथा जो जैसा चल रहा है, वह तो चलता ही रहेगा। हम अपने जीवन काल में पाप-पुण्य का यह खेल खेलते ही रहेंगे। हँसते हुए ताली बजाते रहेंगे तथा रोते हुए मालिक को अपने दोषों के कारण अनावश्यक ही कोसते रहेंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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