स्पेशल नीड वाले बच्चों को जन्म से ही अपने माता-पिता की विशेष प्रकार की देखभाल की आवश्यकता होती है। इसका कारण है कि वे आम बच्चों की तरह अपने कार्य स्वयं करने में पूरी तरह सक्षम नहीं होते हैं। उन्हें किसी सहारे की आवश्यकता होती है।
कुछ बच्चे जन्म से ही मानसिक रूप से विकलांग होेते हैं। वे न बोल सकते हैं, न समझ सकते हैं और न ही अपना कोई कार्य कर स्वयं सकते हैं। सारी आयु इन बच्चों को सम्हालकर रखना पड़ता है। एक व्यक्ति सदा ही इनकी तीमारदारी के लिए चाहिए होता है। इनको खिलाना-पिलाना, नहलाना, इनके कपडे़ बदलना, इनकी साफ-सफाई आदि के सभी कार्य घर के अन्य सदस्यों को करने पड़ते हैं।
यदि कभी घर का गेट असावधनीवश खुला रह जाने के कारण गलती से ऐसे बच्चे घर के बाहर चले जाएँ तो फिर ईश्वर ही इनका मालिक है। समझ न होने के कारण वापिस ये घर लौटकर नहीं आ सकते। ऐसे बच्चे माता-पिता या संसार पर बोझ के समान होते हैं। इसमें इनका कोई दोष नहीं होता। ये बच्चे कृपा के पात्र होते हैं। इन्हें हिकारत की नज़र से नहीं देखना चाहिए।
कुछ बच्चे देखने, सुनने, बोलने या हाथों अथवा पैरों से लाचार होते हैं। यदि इन बच्चों की ओर समुचित रूप से ध्यान दिया जाए तो ये सभी बच्चे स्वावलम्बी बन सकते हैं। हालाँकि ये सभी बच्चे विकलांगता की श्रेणी में आते हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर अपना घर बसाकर आम लोगों की तरह अपना जीवन जीते हैं।
सुनने और बोलने से लाचार बच्चों के लिए अलग विद्यालय हैं जहाँ जाकर ये पढ़ते हैं और योग्य बनते हैं। चलने-फिरने से लाचार बच्चों के लिए कृत्रिम अंग बनाए गए हैं जिनका उपयोग करके वे सुविधपूर्वक चल सकते हैं और सामान्य लोगों की तरह अपने कार्य स्वयं कर सकते हैं। अपनी पढ़ाई आम बच्चों की तरह सामान्य विद्यालयों में करके अच्छी नौकरी पा सकते हैं अथवा कोई व्यापार कर सकते हैं।
इसी प्रकार नेत्राहीन बच्चों के लिए भी अपने अलग विद्यालय हैं जहाँ जाकर ये विद्याध्ययन करते हैं। ब्रेल लिपि के माध्यम से ये अध्ययन करते हैं। ये बच्चे अनेक कार्य कर सकते हैं। कम्प्यूटर भी चला सकते हैं। संघर्ष करते हुए अपने जीवन में ये बच्चे स्वावलम्बी बनते हैं। बहुत से बच्चे सुप्रसिद्ध गायक श्री रवीन्द्र जैन की तरह गायन को अपना व्यवसाय बना लेते हैं और अपने कार्यक्षेत्र में बुलन्दियों को छूते हैं।
इन सभी श्रेणियों के बच्चों के लिए सरकार की ओर से रेल, बस आदि में सफर करने पर किराए में छूट देने का प्रावधन है। नौकरियों में भी इनके लिए सीटें आरक्षित हैं, जिससे ये स्वावलम्बी बनकर अपना जीवन जी सकें और किसी पर आश्रित न रहें।
इन सब बच्चों के अतिरिक्त कुछ वे बच्चे भी होते हैं जिनके विषय में कहा जाता है कि ये slow learner हैं। इनके लिए माता-पिता को बड़े धैर्य की आवश्यकता होती है। इन्हें यद्यपि सामान्य स्तर वाले बच्चों के साथ ही पढ़ाए जाने का कानून है। अन्य बच्चों की तरह ये अपने सभी कार्य सरलता से करते हैं। इन्हें बोलने या किसी की बात समझने में किसी तरह की कोई कठिनाई नहीं होती। सामान्य ज्ञान में ये साधरण बच्चों से पीछे होते हैं यानी अपनी आयु के बच्चों से पीछे रहते हैं।
इनमें से कुछ बच्चों को भाषा की वर्तनी में समस्या होती है और कुछ को जमा-घटा करने में दिक्कत आती है। इसलिए इन बच्चों की परीक्षा के लिए विद्यालय में अलग प्रश्नपत्र बनाए जाते हैं। इनके लिए अलग अध्यापकों की नियुक्ति भी की जाती है। इन्हें परीक्षा के समय प्र्श्श्न हल करने के लिए अन्य सामान्य बच्चों की तुलना में अध्कि समय दिया जाता है।
इन बच्चों के लिए विशेष शिक्षण केन्द्र विद्यमान हैं जहाँ इन्हें पढ़ाई के अतिरिक्त भी और भी बहुत कुछ सिखाया जाता है। इन बच्चों को आधार बनाकर आमिर खान ने ‘तारे ज़मीन पर’ फिल्म भी बनाई थी। टी.वी. पर भी इस विषय को लेकर धरावाहिक बनाया गया था।
ये सभी बच्चे समाज का एक अभिन्न अंग हैं। इन्हें भी प्यार और सम्मान की आवश्यकता है। इन सबके प्रति सहयोग और अपनेपन के रवैये को ही हमें अपनाना चाहिए।
यद्यपि सरकारी और समाजसेवी संस्थाएँ इनके बेहतर भविष्य के लिए कार्य कर रही हैं। फिर भी हम सबका भी कर्तव्य बनता है कि इनके लिए कुछ करें।
किसी भी सूरत में इनकी अवमानना नहीं करनी चाहिए। इससे इन मासूमों के हृदय पर बुरा प्रभाव पड़ता है। जहाँ तक हो सके माता-पिता के साथ-साथ समाज के अन्य लोगों को भी इन्हें प्रोत्साहन देना चाहिए। इन बच्चों को दया का पात्र समझने के स्थान पर इनकी भलाई के लिए कुछ ठोस सकारात्मक कदम उठाने चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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