ईश्वर साकार है या निराकार यह सदा से ही विवाद का कारण रहा है। कुछ लोग निराकार की उपासना करते हैं और कुछ लोग साकार की आराधना करते हैं। दोनों ही प्रकार के साधक अपने-अपने पक्ष में बहुत-सी दलीलें देते हैं।
वास्तव में ईश्वर का कोई स्वरूप नहीं है। वह एक ऐसा प्रकाश पुञ्ज है जिसका दर्शन करना असम्भव तो नहीं परन्तु बहुत ही कठिन है। इन चर्म चक्षुओं से उसका दर्शन नहीं किया जा सकता। मानव मन सदैव यहाँ वहाँ भटकता रहता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे हमारे आन्तरिक शत्रु हमारे जीवन पर इतने अधिक हावी हो जाते हैं कि वे उस स्थिति तक हमें पहुँचने ही नहीं देते।
कभी काम रूपी विशाल शत्रु मनुष्य को डस लेता है तो कभी क्रोध उसे पल-पल विवेकशून्य बना देता है । इसी तरह कभी लोभ रूपी शत्रु इतना जकड़ लेता है कि मनुष्य को पथभ्रष्ट कर देता है तो कभी मोह रूपी रूपी दानव मुँह बाए निगलने के लिए तैयार बैठा रहता है। शत्रु अहंकार उसका सर्वस्व हरण करने के लिए उसे उकसाता रहता है।
इन पाँचों शत्रुओं के मकड़जाल में छटपटाता हुआ मनुष्य प्रभु दर्शन से दिन-प्रतिदिन दूर और अधिक दूर होता जाता है। इसलिए यह डगर बहुत कठिन मानी जाती है।
बहुत से लोग ईश्वर की आराधना करने के लिए सरल मार्ग का चयन करते हैं। वे उसकी साकार रूप में अर्चना करते हैं। ईश्वर को साकार मानने के लिए वे उसे प्रायः मानवीय रूप देते हैं। वे उसका श्रृँगार करते हैं, भोग लगाते हैं यानी उनकी भक्ति नवधा कहलाती है।
रुपरहित, गन्धरहित, सर्वव्यापक होने के कारण ईश्वर निराकार है। ईश्वर की सर्वव्यापकता भी उसके निराकार होने में होती हैं क्योंकि सर्वव्यापक को हम किसी तरह से बाँध नहीं सकते।
यदि बहस करने की बात हो तो कह सकते हैं कि ईश्वर की मूर्ति बनाकर पूजा करने लगें तब उस सर्वव्यापक को एक पत्थर में या मूर्ति में विचार करके उसकी व्यापकता को बाधित कर देते हैं।
वास्तव में किसी भी रूप मे ईश्वर की उपासना मन को स्थिर करने और उसे पाने के लिए की जाती है। परमेश्वर की उपासना करने का उद्देश्य है चौरासी लाख योनियों के चक्र से और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर, जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना।
हमारे ग्रन्थ और मनीषी मानते हैं कि परमात्मा अपने हृदय में ही मिलता है। दूसरे शब्दों में हृदय से ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। जब मनुष्य ध्यान में बैठते हैं तो परमात्मा के गुणों का चिन्तन हृदय से करते हैं। जब परमात्मा का चिन्तन हृदय से यानी भावना से किया जाता हैं तो परमात्मा का दर्शन अपने हृदय में ही होता है।
ईश्वर जंगलों में भटकने, तीर्थस्थानों पर टक्करे मारने, तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के जाल में फँसने अथवा तथाकथित गुरुओं की चौखट पर माथा रगड़ने से कभी नहीं मिलता। वह तो मनुष्य के शुद्ध, पवित्र हुए हृदय में मिलता है।
सभी धर्म चाहे किसी भी रुप में उस मालिक तक पहुँचने का कोई मार्ग सुझाएँ, अन्ततः एक ही मार्ग शेष बचता है। हर किसी धर्मावलम्बी को ईश्वर प्रकाश के रूप में ही मिलता है। उसके लिए स्वय को तैयार करना होता है। उसे प्राप्त करने की जब तक सच्ची लगन या तड़प मन में नहीं होगी, तब तक वह हमारी पहुँच से बहुत दूर रहता है।
परमात्मा की पूजा-अर्चना करने का प्रदर्शन करने से वह नहीं मिल सकता। जिस तरह भौतिक सांसारिक वस्तुओं को पाने की तड़प होने पर हम उन्हें पाने में सफल हो जाते हैं। उसी प्रकार उस मालिक को पाने की लगन भी अवश्य ही सफलता देगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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