जीवन एक चमकते हुए स्वच्छ दर्पण के समान है, वह अपने सामने खड़े मनुष्य को उसके अपने कर्मों को प्रतिबिम्बित कराता है। जैसा वह अपने भविष्य के लिए बोता है वैसा ही पा लेता हैं। अब यह उस पर निर्भर करता है कि उसकी अपने जीवन से क्या अपेक्षा है? कैसे लोगों की संगति में रहना चाहता है? दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहता है?
यदि वह अपने जीवन में सदा शुभ की कामना करता है तो उसे दूसरों की भलाई के कार्य करने चाहिए। कहते हैं कि लाभ का उल्टा भला होता है। यदि मनुष्य परोपकार के कार्य करता है तो निश्चित ही उसे जीवन में लाभ मिलता है। सर्वत्र उसकी प्रशंसा होती है, उसका साथ देने के लिए बहुत से साथ आगे बढ़ते हैं। इससे उसे आत्मिक बल मिलता है।
इसी प्रकार यदि मनुष्य दूसरे लोगों के हृदयों में अपना स्थान बनाना चाहता है तो उसे जीवमात्र पर दया करनी चाहिए। दया का उल्टा होता है याद। किसी के मन में मनुष्य अपनी यादों को सदा के लिए बसाना चाहता है तो उसे दया का मार्ग अपनाना ही होगा। उसे क्षमाशील बनकर सबके हृदयों पर राज करने से कोई नहीं रोक सकता।
दूसरों को सदा खुशियाँ बाँटते रहना चाहिए। ऐसा करके मनुष्य स्वतः ही सबके प्रेम का भाजन बनता है। यदि सामने वाला प्रसन्न होता है तो वह आपके चेहरे पर भी मुस्कान आ ही जाती है। इस संसार में यह भी एक प्रकार का लेन देन यानी Give and take का ही व्यापार कहलाता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं -
'इस हाथ दे उस हाथ ले।'
कहने का तात्पर्य मात्र यही है कि मनुष्य जितना दूसरों को देता है, वह कई गुणा होकर उसे वापिस मिलता है। जैसे पृथ्वी बादलों को अपना जल देती है तो बादल उसका कई गुणा अधिक जल वर्षा के रूप में उसे वापिस लौटा देते हैं। वही जल मनुष्य की जीवनी शक्ति बनता है। वही वर्षा का जल उसे अन्न, फल, शाक-सब्जी आदि देता है। उसे सभी प्रकार की सुख-सुविधाएँ प्रदान करता है। सूर्य की प्रचण्ड गर्मी से राहत देता है।
एक पौधे को मनुष्य रोपित करता है तो वह जीवन पर्यन्त उसके किए गए इस उपकार के बदले उसे फल, छाया, ईंधन आदि देता है। पर्यावरण को शुद्ध करके उसकी सेवा करता है। इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति मनुष्य की सदैव सहायक बनती है, उसकी हर तरह से रक्षा करती है। परन्तु यदि उसके साथ छेड़छाड़ की जाती है तो वह अपने उपकारी स्वभाव को त्यागकर महाप्रलयंकारी रौद्र रूप अपना लेती है। तब उसके प्रकोप से कोई भी बचने में समर्थ नहीं हो सकता।
समाज में रहते हुए दूसरों के साथ किए गए सदव्यवहार और सद्भावना कभी व्यर्थ नहीं जाते। इन्हीं सद्गुणों को अपनाने के कारण मनुष्य चाहे तो सबके हृदयों में सम्राट बनकर एकछत्र राज्य कर सकता है। अन्यथा उसे जमीन पर पटखनी खाने के लिए पलभर का समय भी अधिक हो जाता है।
व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि उसे अपने जीवनकाल में क्या चाहिए? सबसे पहले उसे स्थिरमति होकर विचार करना चाहिए। तदुपरान्त उसके अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए। जैसा व्यवहार उसे अपने लिए अपेक्षित होता है, वैसा ही उसका आचरण अन्यों के लिए भी होना चाहिए। अन्यथा तब उसकी कथनी और करनी के विरोधाभास पर एक बहुत बड़ा-प्रश्नचिह्न लगने की सम्भावना बनी रहती है।
मनुष्य को सदैव हर कार्य को अपने विवेक की कसौटी पर कसकर ही आचरण करना चाहिए। यदि अपने प्रश्न का उत्तर हाँ में मिले तब उस कार्य को शीघ्र ही कार्यरूप में परिणत लेना चाहिए। परन्तु यदि उत्तर न में मिले तो उस कार्य को करने का विचार त्याग देना ही समीचीन होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp