माँ के रूप में एक बहुत ही अमूल्य उपहार मनुष्य को ईश्वर ने दिया है। उस परमात्मा को तो हम मनुष्य कभी इन चर्म चक्षुओं से देख नहीं सकते। परन्तु उस मालिक ने अपने प्रतिनिधि के रूप में जो माँ रूपी एक देवता मनुष्य को भेंट में दिया है, उसे हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं। माता ईश्वर का ही दूसरा रूप है।
ईश्वर को प्रसन्न करने, उसे पाने के लिए मनुष्य पूजा-पाठ, जप-तप करता है। नाना विध उपाय करता है। यदि मनुष्य का इरादा दृढ़ हो, लगन सच्ची हो और प्रयत्न ईमानदार हो तो अन्ततः वह ईश्वर को पाकर निहाल हो जाता है।
उसी प्रकार जब मनुष्य अपनी माता की सच्चे मन से सेवा करता है, उसका हर तरह से ध्यान रखता है और उसका किसी तरह से दिल नहीं दुखाता तो माता उससे सदा सन्तुष्ट रहती है और हरपल उसे अपने आशीर्वाद की दौलत से मालामाल करती रहती है। ऐसे बच्चों से ईश्वर भी प्रसन्न रहता है।
ईश्वर इस संसार की सृष्टि करता है और माता अपनी सन्तान की रचना करती है। नौ मास तक निज गर्भ में रखकर, अपने रक्त से उसका सिंचन करती है। कदम-कदम पर वह उसकी ढाल बनकर खड़ी हो जाती है। उसे संस्कार देती है, योग्य बनाने के लिए जी-जान से यत्न करती है। उसके स्पर्शमात्र से ही बच्चा अपने दुखों और परेशानियों से मुक्ति पाता है।
'प्रतिमानाटकम्' में कवि भवभूति ने बड़े सुन्दर शब्दों में माता के इस स्पर्श के विषय में बताया है कि-
हस्तस्पर्शो हि मातृणामजलस्य जलाञ्जलि:। अर्थात् पुत्र के लिए माता के हस्त (हाथ) का स्पर्श प्यासे के लिए जलधारा के समान होता है। यानी माता का स्पर्श मनुष्य को जीवनदायिनी शक्ति देता है। उसे सदा यह विश्वास होता है कि सारी दुनिया चाहे उसे छोड़ दे पर माता उसका त्याग नहीं करेगी। माँ का साथ होना, उसे कभी अकेलेपन का अहसास नहीं होने देता।
स्कन्दपुराण में माता के विषय में कहा है कि-
नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गति:।
नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा।।।
अर्थात माँ के समान छाया नहीं है, माँ के समान कोई गति नहीं है, माँ के समान कोई त्राता या रक्षा करने वाला नहीं है, माँ के समान कोई प्रपा या प्याऊ नहीं है।
इस श्लोक का यह भाव है कि माता की छत्रछाया में एक मनुष्य को आजीवन शीतल छाया यानी सुरक्षा मिलती रहती है। माता की आज्ञा का पालन करना, सेवा करना ही उसकी सबसे बड़ी गति है। माँ के समान इस ब्रह्माण्ड में कोई दूसरा नहीं है जो उसकी रक्षा कर सके। माता ही उसके जीवन की सारी कमियों को दूर करके उसे जल की तरह शीतल, शुद्ध, पवित्र और प्रवहणशील बनाती है।
इन्सान घर के बाहर अपने लिए सुख और शान्ति की खोज के लिए भटकता रहता है, परन्तु वह सच्ची शान्ति उसे घर के बाहर नहीं अपितु अपनी माता के चरणों में ही मिलती है। यदि हर व्यक्ति इस बात को ध्यान में रख सके तो उसे किसी तीर्थ स्थान पर जाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। न ही उसे जंगलों में भटकने की जरूरत रह जाएगी।
इन्सान को तथाकथित गुरुओं की शरण में जाकर धोखा नहीं खाना पड़ता। तान्त्रिकों और मान्त्रिकों के बहकावे में आकर अपने कठोर परिश्रम से कमाए हुए धन और बहुमूल्य समय को व्यर्थ गँवाना नहीं पड़ता। उसका स्वर्ग और इस दुनिया की सारी दौलत उसकी माता के चरणों में ही है।
आयुप्राप्त माँ को यदि अपने बच्चे ही बेसहारा छोड़ देंगे, उसका और उसकी आवश्यकताओं का ध्यान नहीं रखेगे, उसके स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं करेंगे तो इसका सीधा-सा अर्थ यही होगा कि उन्होंने अपनी माता की ही नहीं अपितु ईश्वर की भी अवमानना की है।
चन्द्र प्रभा सूद
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