प्राणशक्ति जीव के शरीर में रहती है जिसके कारण उसका यह जीवन होता है और जब यह प्राण शरीर से बाहर निकल जाता है तो जीव की मृत्यु हो जाती है। तब उस निर्जीव शरीर का संस्कार कर दिया जाता है। कोई कितना भी प्रिय क्यों न हो उसे विदा करना पड़ता है। हम सभी मोटे तौर पर शरीर में विद्यमान प्राणवायु के विषय में इतना ही जानते हैं।
आज हम मानव शरीर में रहने वाले दस प्रकार के प्राणों की चर्चा करते है। प्राण को दस भागों में विभक्त किया है। प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान आदि पाँच मुख्य प्राण हैं। नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय पाँचों उपप्राण हैं। पाँच महाप्राणों को ‘ओजस’ और पाँच लघुप्राणों को रेतस’ कहते हैं।
जिस प्रकार दोनों कान, दोनों आँखें, दोनों नथुने, दोनों हाथ और दोनों पैर एक-दूसरे की सहायता करते हैं। उसी प्रकार महाप्राण और लघुप्राण परस्पर सहायक एवं पूरक होते हैं। ये दसों मिलकर हमारे शरीर का संचालन करते हैं-
1. प्राण- हृदय में रहकर श्वास को बाहर-भीतर करने की प्रक्रिया करtता है। है। अन्न पानादि को पचाती है। प्राण वायु मुख, नासिका, हृदय, नाभि, कुण्डलिनी के चारों ओर तथा पादाँगुष्ठ में रहता है।
2. अपान- मूलाधार में स्थित स्थूल मलों का विसर्जन करता है। देह के भीतर पैदा होने वाले मल, मूत्र, पसीना, कफ, कीचड़, विष आदि विजातीय पदार्थ शरीर से बाहर निकालता है। यह क्रिया न हो सके तो अपच, जुकाम आदि अनेक रोग पैदा हो जायेंगे। अपान पर नियन्त्रण न जानते हुए भी जिन्हें हठपूर्वक ब्रह्मचर्य रखना पड़ता है वे प्राय: रोगों में ग्रसित हो जाते हैं।
3. समान- नाभि में शरीर को यथा स्थान रखने का काम करता है। उदाराग्नि के कला को लेकर सर्वांग में समान रहता है।
4. उदान- कण्ठ में रह कर शरीर की वृद्धि करता है। सभी संधियों(जोड़ों) तथा हाथों और पैरों में उदान रहता है। उदान विविध वस्तुएँ बाहर से शरीर के भीतर ग्रहण करता है।
5. व्यान- व्यान का काम रक्त-संचार है। सम्पूर्ण शरीर में लेने और छोड़ने आदि का धर्म करता है। कर्ण, नेत्र, कण्ठ, नाक, मुख, कपोल, मणिबँध में व्यान रहता है ।
6. नाग- मनुष्य के मुँह से डकार के रूप में निकालता है।
7. कूर्म- नेत्रों की पलकों को बन्द करने और खोलने का कार्य कूर्म करता है। कूर्म यदि सुषुप्त अवस्था में होता है तो शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ होने पर भी गर्भधारण नहीं हो सकता।
8. कृकल- छींक मारने का कार्य कृकल करता है।
9. देवदत्त- जम्हाई लेने का कार्य करता है।
10. धनञ्जय- सारे शरीर में व्याप्त रहता है। शरीर के मृत हो जाने पर यह चार घण्टे तक वहाँ विद्यमान रहता है।
प्राण के द्वारा शब्द एवं मस्तिष्क का पोषण होता है। प्राण के द्वारा ही हृदय की धड़कन होती है, रक्त सञ्चार होता है और साँस आती है। इसके बाद शरीर की अन्य क्रियाएँ होती हैं। प्राण में शिथिलता आने पर जीवनी शक्ति घटने लगती है और उसके कम हो जाने पर हृदय की धड़कन बन्द हो जाती है।
समाधि की अवस्था में योगी प्राण को नियन्त्रित करते हैं। इन्हें जीते बिना हृदय में स्थित कमल में ध्यान नहीँ लगाया जा सकता। योगी प्राणों का निरोध करके जब चाहें तब शरीर में प्राण का स्पन्दन बढ़ा लेते हैं। जब तक उनका प्राण ब्रह्माण्ड में संचित रहता है तब तक उनके हृदय की धड़कन बन्द रहती है और शरीर मृततुल्य प्रतीत होता है। इसीलिए उन्हें दीर्घकालीन समाधि सुख मिलता है।
प्राणों का संयम करके दीर्घकाल तक जीवन स्थिर रखकर भीष्म पितामह की तरह इच्छा मृत्यु पाना सम्भव होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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