सोना-जागना, परिश्रम करना, परिवार का पालन-पोषण करना जिस प्रकार किसी मनुष्य के लिए जीवन के आवश्यक कार्य हैं, उसी तरह से भोजन कमाना भी मनुष्य की मजबूरी है। यदि वह धनार्जन नहीं कर सकेगा तो निश्चित ही उसके घर-परिवार के लिए भूखों मरने की नौबत आ जाएगी।
अन्न या भोजन मनुष्य के लिए एक जीवनदायिनी शक्ति है। अन्न ही मनुष्य को पुष्ट करता है और फिर उसे अपने कार्यों को सुचारू रूप से करने की हिम्मत देता है। सबसे बढ़कर वह उसे रोगों से बचाता है। यानी उसे प्रतिरोधक शक्ति देता है। स्वस्थ व्यक्ति के चेहरे पर एक अलग तरह की चमक होती है।
इसके विपरीत दुर्भाग्यवश जिन लोगों को प्रतिदिन या कई-कई दिन भोजन नहीं मिल पाता वे थके-हारे, कमजोर से और मुरझाए हुए से दिखाई देते हैं। कुपोषण के कारण कई बिमारियाँ उन लोगों को घेर लेती हैं। उनकी नाकामयाबी की दास्तान उनके चेहरों पर से आसानी से पढ़ी जा सकती है।
मनीषी कहते हैं- 'जैसा खाओ अन्न, वैसा बनता मन।' अन्न को जिस विधि से मनुष्य कमाता है अर्थात यदि ईमानदारी और सद् वृत्ति से कमाता है तो उसके विचार शुद्ध होते हैं।
अपने खून-पसीने और परिश्रम से कमाए हुए शुद्ध धन से अन्न को खरीदना चाहिए। तभी स्वयं के और घर के सदस्यों के विचारों में शुचिता आती है। ऐसा अन्न खाकर मनुष्य के विचारों में पवित्रता आती है। वह किसी प्रकार का देश, धर्म, समाज विरोधी कार्य नहीं कर सकता।
इसके विपरीत यदि वह चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, दूसरे का गला काटकर कमाएगा तो उसके विचार भी दूषित हो जाएँगे। विचारों के प्रदूषित होने से स्वयं मनुष्य में और उसके परिवारी जनों में भी अपराधी भाव पनपने की सम्भावना प्रबल रहती हैं। वे कुमार्गगामी बनने से संकोच नहीं करते। उनके लिए तो केवल अपने स्वार्थ को साधना ही प्रमुख लक्ष्य बन जाता है। ऐसे परिवारों को संस्कारों की बलि देने में कोई संकोच नहीं होता। उन घरों में छोटे-बड़े का अन्तर समाप्त हो जाता है और अपना हित प्रधान बन जाता है।
इसलिए भोजन खाते समय मन को सदैव शान्त रखना चाहिए। उसे सदा स्वाद लेकर और चबाकर खाना चाहिए। खाते समय तनाव से बचने का भरसक यत्न करना चाहिए। इस तरह से खाया गया भोजन विचारों को पुष्ट करता है।
खाने की मेज पर बैठकर परस्पर प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिए ताकि सभी प्रसन्न मन से भोजन का आनन्द ले सकें। यदि भोजन करते मनुष्य समय तनाव में रहे अथवा क्रोधित होता रहे तो उसका आनन्द ही नहीं आता। उस समय इन्सान यही सोचता है कि कब यह भोजन समाप्त हो और वह उठकर भाग सके।
जीवन का एक निश्चित क्रम है कि बादल वर्षा करते हैं। वह जल एकत्र होकर नदियों में जाता है। नदियों का वही जल समुद्र में जाकर मिलता है। समुद्र उस जल को भाप के रूप में बदल देता है। वह भाप से बादल के रूप में परिवर्तित होती है। उस भाप से बने बादल पानी के रूप में बरसकर वापिस धरती को वह जल भेज दे देते हैं। यह जल धरतीवासियों के लिए जीवनदायिनी शक्ति कहलाता है।
इसी जल से किसान अन्न उगाता है, जिसे सभी खाते हैं। जिस मानसिक स्थिति से अन्न उगाया जाता है, जिस कमाई से खरीदा जाता है, जिस मनोदशा में उसे खाया जाता है, उसी के अनुरूप मानव की मनोवृत्ति बनती है।
आचार और व्यवहार की शुद्धता पर हमारी भारतीय संस्कृति बल देती है। इस बात का ध्यान रखना आवश्यक होता है कि तन और मन की शुद्धता के लिए अन्न का महत्त्वपूर्ण रोल होता है। इसलिए उसके लिए सावधानी को बरतना बहुत आवश्यकता होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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