इस संसार में मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक अपने मन में उठते हुए कुछ प्रश्नों के उत्तर खोजने में लगा रहता है। इस खोज में उसका सारा जीवन व्यतीत हो जाता है पर ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं। वह कोई सन्तोषजनक हल नहीं ढूँढ पाता। ये प्रश्न निम्नलिखित हैं-
हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या ईश्वर की कोई सत्ता है? उसका स्वरूप कैसा है? वह स्त्री है या पुरुष? भाग्य किसे कहते हैँ? जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन होता है? दुनिया में दुःख क्यों हैं? उसकी रचना क्यों की गई? इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
मनुष्य के जीवन का एक ही उद्देश्य है उस चेतन शक्ति के विषय में जानकारी प्राप्त करना है जो जन्म और मरण के बन्धन से परे है यानी मुक्त है। वास्तव में उसे जानना ही मोक्ष कहलाता है। जीव जब तक जीवन मुक्त नहीं हो जाता है तब तक उसे चौरासी लाख योनियों में अपने कर्मानुसार आवागमन करना पड़ता है।
बिना कारण के कोई भी कार्य नहीं होता। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। ईश्वर है इसलिए हम सभी जीव भी हैं। आध्यात्म में इस महान कारण को 'ईश्वर' कहा गया है। वह परमात्मा न स्त्री है और न ही पुरुष। इसलिए उस प्रभु के लिए स्त्रीवाचक और पुरुषवाचक दोनों ही प्रकार के सम्बोधनों का प्रयोग किया जाता है।
हर प्रकार की क्रिया और हर तरह के कार्य का एक परिणाम होता है। इसका परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी। यह परिणाम ही भाग्य है तथा आज का प्रयत्न ही कल का भाग्य है। दूसरे शब्दों में मनुष्य जो भी सुकर्म अथवा दुष्कर्म करता है वही उसका भाग्य बनाते हैं। उन सबका शुभाशुभ फल जीव को वर्तमान जीवन और आगामी जन्मों में देर-सवेर भोगना पड़ता है। इससे मनुष्य को कभी छुटकारा नहीं मिल सकता।
जिसने स्वयं को और अपने अंतस में विद्यमान उस आत्मा को जान लिया है और पहचान लिया है, वह निस्सन्देह जन्म और मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। वह सौभाग्यशाली जीव परब्रह्म परमात्मा में विलीन हो जाता है।
इस संसार में रहने वाले मनुष्यों में व्याप्त लोभ-लालच, स्वार्थ और भय ही वास्तव में उसके दुःख का प्रमुख कारण हैं। मनुष्य ने अपने विचारों और कर्मों से दुःख तथा सुख की रचना की है। अपने किए हुए शुभकर्म उसे सुख, समृद्धि और सफलता देते हैं। इसके विपरीत उसके अपने किए हुए अशुभ कर्म उसे दुख, परेशानियाँ और असफलता देते हैं।
प्रतिदिन हजारों-लाखों लोग मरकर इस असार संसार से विदा ले लेते हैं।सभी लोग यह तथ्य को जानते हैं कि जो भी जीव इस संसार में जन्म लेते हैं उन्हें अपनी आयु भोगकर यहाँ से विदा होना पड़ता है। देखते और जानते हुए भी हैं हर व्यक्ति अनन्त-काल तक जीने की कामना करता है। शायद वह सोचता है कि उसे तो इसी धरती पर सदा के लिए रहना है। यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य है।
इस सार को सब लोग सज्जनों की संगति और अपने सद् ग्रन्थों को पढ़कर जान सकते हैं और समझ सकते हैं। मात्र पुस्तकीय ज्ञान से कुछ नहीं होता, वह तो एक बोझ के समान होता है जब तक उस पर आचरण न किया जाए। जब मनुष्य कठोर साधना करता है तभी उसे जन्म-जन्मान्तरों के कष्टों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। वह आत्मा मुक्तात्मा कहलाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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