स्त्री और पुरुष दोनों का अपना अलग अस्तित्व है। दोनों ही समाज के अभिन्न अंग हैं। इन दोनों में से किसी एक के बिना इस समाज की परिकल्पना नहीं की जा सकती। पति-पत्नी के रूप में ये दोनों घर, परिवार और समाज में एक अहं किरदार निभाते हैं। इन्हें एक ही सिक्के के दो पहलू कहना उपयुक्त होगा, जिन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता।
पति और पत्नी दोनों के लिए एक ही शब्द 'दम्पत्ति' का प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ यही निकलता है कि ये दोनों एक ही इकाई हैं, कोई अलग-अलग नहीं हैं। महाकवि कालिदास ने भगवान शिव और भगवती पार्वती की वन्दना करते हुए इसी सत्य को उद्घाटित किया था। इस विषय में उनका कथन हैं-
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये।
जगत: पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
अर्थात जिस प्रकार शब्द और अर्थ परस्पर मिले होते हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। उसी प्रकार शिव और पार्वती को भी अलग नहीं किया जा सकता। शब्द और अर्थ की तरह परस्पर मिले हुए उन दोनों की मैं वन्दना करता हूँ।
इस श्लोक को यहाँ लिखने का तात्पर्य केवल यही है कि शब्द और अर्थ में से किसी एक का उच्चारण करने पर दूसरे का स्मरण स्वाभाविक ही दृष्टिपटल पर आ जाता है। इसी तरह पति-पत्नी को भी परस्पर मिल-जुलकर रहना चाहिए। उनमें टकराव की कोई गुँजाइश ही नहीं होनी चाहिए। यदि व्यवहार में वे लडाई-झगड़ा करते हैं तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति कहलाती है।
नारी को त्याग, समर्पण और ममता की मूर्ति कहा जाता है। पुरुष को संघर्ष का दूसरा रूप माना जाता है। दोनों में से कौन अधिक महान है, यह कहना अनुचित होगा। दोनों को सदा एक-दूसरे की आवश्यकता रहती है। इसलिए वे एक-दूसरे के पूरक कहे जाते हैं अन्यथा वे दोनों ही अधूरे रह जाते हैँ।
पति और पत्नी गृहस्थी रूपी रथ के दो पहिए माने जाते हैं। एक के खराब हो जाने पर वह रथ डगमगाने लगता है। उस समय गृहस्थी रूपी रथ को सुचारू रूप से चलाने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
घर को चलाने, अतिथियों का सत्कार, सुख-दुख में सहयोग आदि सभी कार्य दोनों को मिलकर करने होते हैं। एक अकेला इन सारे कामों को दक्षतापूर्वक नहीं कर सकता। बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए भी दोनों के परस्पर मेल-मिलाप की जरूरत होती है। एक छोटे बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उसके माता और पिता दोनों की समान रूप से आवश्यकता होती है।
इसीलिए उन बच्चों का व्यवहार बहुत असन्तुलित होता है जिनके माता और पिता का आपस में टकराव होता रहता है अथवा किसी कारण से उनका अलगाव हो जाता है। वे जिसके साथ भी रहते हैं उसे परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
हर बच्चे को उसकी माता और उसके पिता दोनों चाहिए होते हैं। एक के भी अपने से दूर रहने को वह पचा नहीं पाता है। अतः विचलित होकर वह उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए अनाप-शनाप कार्य करता रहता है जिससे वे दुखी हों।
हमारा सामाजिक परिवेश इस प्रकार का है कि दोनों में यदि आपसी सामञ्जस्य न हो और किसी कारण से अलगाव हो जाए तो समाज में उन्हें सम्मान नहीं मिल पाता। उनके लिए बेचारेपन का एक भाव सबके मन में रहता है। अपने परिवार में स्थायित्व बनाए रखने वालों को ही समाज में उचित स्थान मिलता है।
जिस घर में पति और पत्नी एक-दूसरे को यथायोग्य सम्मान देते हैं समाज में उनकी सराहना होती है। इसके विपरीत आचरण करने वालों को समाज तिरस्कृत करता है।
स्त्री महान है या पुरुष महान है कहना अनुचित है। दोनों का ही अस्तित्व समाज के लिए आवश्यक है। ईश्वर ने दोनों को विशिष्ट गुणों और कार्यों के लिए इस संसार में भेजा है। इसलिए यह विवाद ही निर्मूल है। अतः व्यर्थ के पूर्वाग्रह को छोड़कर एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए। किसी को भी हेय नहीं मानना चाहिए। समाज को अपनी मानसिकता में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की महती आवश्यकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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