मानवीय कमजोरी है कि जब वह किसी भी तरह का पापकर्म करता है अथवा धार्मिक, सामाजिक, न्यायिक आदि किन्हीं नियमों का उल्लंघन करता है, तब उसे आनन्द की अनुभूति होती है। उसे लगता है कि मानो उसने कोई किला फतह कर लिया है। अपनी तथाकथित सफलता पर परिणाम की परवाह न करते हुए वह अपनी पीठ थपथपाने से नहीं चूकता।
इसके अतिरिक्त जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे के पाप-कर्म का बखान उसकी बुराई करने की नीयत से करता हैं तब उसे और भी प्रसन्नता होती है। हालाँकि अपनी बुराई करने वाला उसे अपना सबसे बड़ा शत्रु प्रतीत होता है। उसे वह किसी भी शर्त पर सहन नहीं कर सकता और उसका चेहरा भी नहीं देखना चाहता। यहाँ उसका दोहरा चरित्र परिलक्षित होता है।
मनुष्य इस सत्य से अनजान रहना चाहता है कि जिस व्यक्ति के पापकर्मों के किस्सों को वह दुनिया के सामने बड़े ही गर्व से मजे लेकर, नमक-मिर्च लगाकर सुनाता है, उसका कुछ अंश बुराई करने वाले उसके खातों में भी जुड़ जाता है। पाप-कर्म की घटना का यदि बुराई करने के भाव से प्रकटीकरण किया जाए तो इस क्रिया से आनन्द अथवा सन्तुष्टि मिलती है। परन्तु यह खुशी स्थायी नहीं हो सकती। इसका परिणाम भोगना वास्तव में बहुत भयंकर होता है।
मनुष्य को समय रहते सावधान हो जाना चाहिए। प्रायः लोग सारा जीवनकाल यही सोचने में बिता देते हैं कि उन्होंने अपने इस जीवन में ऐसा कोई भी पापकर्म नहीं किया, फिर उन्हें न जाने किन कर्मों का फल मिल रहा है? उनके जीवन में इतना अधिक कष्ट क्यों आ रहा है? अन्य दूसरे सभी लोग कितने सुखी हैं और उसके हिस्से में केवल कष्ट ही बचे हैं? समझ नहीं आता कि ईश्वर का यह कैसा न्याय है? वह आखिर चाहता क्या है? कौन से जन्म का बदला उससे ले रहा है? आदि।
मन में उठने वाले इतने सारे प्रश्नों का हल मनुष्य को स्वयं ही ढूँढना होता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये कष्ट और कहीं से नहीं आते बल्कि लोगों की बुराई करने के कारण मनुष्य के पाप-कर्मो से आए होते हैं। बुराई करते ही यह मनुष्य के जमाखाते यानी अकाऊँट में ये तत्काल ही ट्रांसफर हो जाते हैं। फिर समयानुसार फल देते रहते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है।
यानी मनुष्य अपना स्वभाव छोड़ नहीं सकता और इसके दुष्परिणाम को भोगने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। इससे उसे संसार की कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती। यह तो वही बात हुई कि पहले मजा और फिर बाद में सजा। मनुष्य को यथासम्भव यही प्रयत्न करना चाहिए कि वह किसी की निन्दा-चुगली से बचे और दूरी बनकर रखे।
इन्सानी कमजोरी है कि वह चटखारे लेकर या रस लेकर ऐसा कुकृत्य करता रहता है। वह भला इस आनन्द को क्योंकर त्यागे। यह तो उसका टाइमपास मनोरंजन होता है। उसके फल का भुगतान आज नहीं तो कल उसे अवश्य ही करना पड़ता है। तब वह चीख-पुकार मचाता है। अपने भाग्य सहित सबको लानत-मलातन करता है। इनसे भी बढ़कर परमपिता परमात्मा को पानी पी-पीकर कोसता है।
दूसरों की निन्दा-चुगली भी विष्ठा के समान होती है। इस विष्ठा को देखकर हर मनुष्य नाक-भौ सिकोड़ लेता है। उससे बचकर निकलने का प्रयास करता है कि कहीं वह गन्दगी उसे छू न जाए। जाने-अनजाने इस विष्ठा भक्षण से बचना चाहिए। मनुष्य की यह आदत सदैव निन्दनीय कहलाती है। ऐसे मनुष्य को लोग केवल मात्र मनोरंजन का माध्यम समझते हैं। मन से उससे दूरी बनाए रखना चाहते हैं।
इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि जो व्यक्ति दूसरों की बुराई आपके समक्ष कर रहा है, वही कल दूसरों के सामने आपकी कमियों को भी मजे लेकर उजागर कर देगा। उस समय लोगों की व्यंग्यात्मक नजरों से आप किसी भी प्रकार से बच नहीं सकेंगे। अतः उस विचित्र कशमकश वाली स्थिति से निपटने के लिए स्वयं को सदा तैयार रखिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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