मनुष्य स्वयं को जब योग्य बना लेता है तो सभी समृद्धियाँ उसकी दासी बन जाती हैं। हर क्षेत्र का अपना एक विशेष महत्त्व रखता है। जिस भी क्षेत्र में वह अपनी योग्यता प्रमाणित कर लेता है, उसमें अपनी पैठ बना लेता है। उसी क्षेत्र में बढ़ता हुआ मनुष्य सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है। एक समय ऐसा भी आता है जब उसकी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। उसे धन-सम्पत्ति तो मिलती ही है, साथ ही यश और कीर्ति उसकी चेरियाँ(दासियाँ) बन जाती हैं।
यहाँ 'विदुरनीति' का एक श्लोक लेते हैं, जिसमें विदुर जी ने कहा है-
नाम्भोधिरर्थितामेति सदाम्भोभिश्च पूर्यते।
आत्मा तु पात्रतां नेय: पात्रमायान्ति सम्पद:।।
अर्थात समुद्र कभी किसी से जल की याचना नहीं करता तथापि सदैव जल से परिपूर्ण रहता है। यदि हम स्वयं को पात्र (योग्य) बना लें तो हमारी पात्रता स्वयं धन-सम्पदा को लेकर आती है।
इस श्लोक का अर्थ यह है कि किसी से याचना करने से कोई लाभ नहीं होता। याचक को कोई कितना दे सकता है? उसे जो कुछ मिल जाए उसी में ही सन्तोष करना पड़ता है। इसीलिए मनीषी कहते हैं कि मनुष्य को स्वयं को समर्थ बनाना होता है, तभी वह पूर्णता को प्राप्त होता है। श्लोक में विदुर जी ने समुद्र का उदाहरण दिया है। वह जल के लिए किससे याचना कर सकता है? जल का स्रोत बादल होता है। सागर उसी से ही याचना कर सकता है अन्य किसी से नहीं।
यदि बादल सागर को जल देगा भी तो कितना दे सकता है? उसकी अपनी भी तो एक सीमा है। यह सत्य है कि देने वाला अपनी हैसियत के अनुसार ही दान देता है। बादल को बिना किसी का पक्षपात किए हुए इस सम्पूर्ण संसार को जल देना होता है। उसके अनुपात में सागर को कितना जल मिल पाएगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। इसीलिए उसने बादल की ओर देखने के स्थान पर अपना मार्ग अपने बूते पर बना लिया।
सागर ने स्वयं को इतना सामर्थ्यवान बना लिया है कि उसके पास अथाह जलराशि का खजाना है। यदि वह केवल बादलों की कृपा पर निर्भर रहता, उसका मुँह ताकता रहता तो उसकी जमा-पूँजी इतनी अधिक नहीं हो सकती थी। अब स्थिति यह है कि सागर अनेकानेक जीवों को आश्रय देकर उन्हें अनुगृहीत करता है और उनका पोषण करता है। जान साधारण को आवागमन सुलभ करवाता है। उसकी गहराई से मोती निकालकर लोग मालामाल होते हैं। शंख, सीप और न जाने क्या क्या वह अपनी प्रसन्नता से देता रहता है। इसी समुद्र का मन्थन करके देवों और असुरों ने चौदह रत्न प्राप्त किए थे।
इसी प्रकार मनुष्य यदि अपना हाथ दूसरों की सहायता के लिए या दान लेने के लिए फैलाएगा तो कभी उन्नति नहीं कर सकता। उसे लगेगा कि बिना श्रम के कुछ मिल जाए तो अच्छा रहेगा। वह आलसी बन जाएगा। योग्य व्यक्ति किसी की ओर नहीं ताकता। वह तो बस अपने कर्म पर विश्वास करता है। अपनी योग्यता से विद्यार्जन करके वह धन कमाकर दानादि देकर देश, धर्म, सामाज और घर-परिवार के कार्य करता है। निम्न श्लोक में बड़े सुन्दर शब्दों में कवि ने कहा है-
विद्या ददाति विनयं विन्याद्यति पात्रताम्।
पात्रत्वद्धनमाप्नोति धनाद् धर्मं तत: सुखम्।।
अर्थात विद्या विनम्रता देती है। विनम्र व्यक्ति योग्य बनता है। योग्य बनकर वह धन कमाता है। धन से धर्म के कार्य करता है और फिर वह सुख प्राप्त करता है।
कहने का तात्पर्य यही है कि योग्य व्यक्ति जल से भरे हुए मटके की तरह पूर्ण होता है। उसका ज्ञान आधे भरे हुए मटके की तरह छलकता नहीं है। उसकी पूर्णता से उसका मानसिक और आत्मिक बल बढ़ते हैं। इसी कारण वह समाज में अग्रणी कहलाता है। तब उसे अपनी योग्यता प्रमाणित नहीं करनी पड़ती। उसकी कार्य करने की सुचारु पद्धति ही उसकी प्रमाण होती है। अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए उसे बताना नहीं पड़ता। अन्त में यही कह सकते हैं कि पात्रता से मनुष्य अपनी मनचाही इच्छाओं को पूर्ण कर सकता है। इसलिए समय रहते योग्यता प्राप्त करने का प्रयास करते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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