हम सभी शिकायतों का एक पुलिन्दा बाँधकर, सहेजकर अपने पास रखते हैं। हर समय उनका पिष्टपेषण करते रहते हैं। इस तरह अपने मन में नित्य प्रति दूसरों के लिए जहर घोलते रहते हैं। इसका परिणाम होता है अपने मधुर सम्बन्धों में कड़वाहट आ जाती है। जो रिश्ते बहुत ही प्यारे होते हैं, बहुत नाजुक होते हैं, उनमें एक गाँठ तो पड़ ही जाती है। उसे खोल पाना किसी के लिए भी नामुमकिन तो नहीं परन्तु बहुत कठिन अवश्य हो जाता है।
विचार इस विषय पर करना है कि आखिर मनुष्यों को एक-दूसरे से शिकायत क्यों रहती है? इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? इन शिकायतों से किसी को हासिल क्या होता है? हम सब शिकायत करना क्यों नहीं छोड़ सकते?
हर मनुष्य को दूसरे मनुष्य से शिकायत इसलिए होती है क्योंकि वह उसकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करता। ईश्वर ने हर मनुष्य को बुद्धि दी है। इसलिए वे अपने समक्ष किसी और की बुद्धि को अपने से महान नहीं मानते। वे सोचते हैं जो हमने कार्य कर दिया है वही अच्छा है और हमने जो कह दिया वही पत्थर पर लकीर है। सभी हमारे कहे अनुसार चलें। सारे फसाद की जड़ मिथ्या यह अहंभाव है जो किसी की कही सही बात को मानने के लिए तैयार नहीं हो पाता कि दूसरा ठीक बात कह रहा है या भले के लिए कह रहा है।
प्रायः लोग दूसरे के कुछ कहने अथवा समझाने को गलत अर्थ में लेते हैं। वे सोचते हैं कि फलाँ व्यक्ति होता कौन है हमें कुछ कहने वाला? यानी वे अपने मामले में परामर्श देने को अनाधिकार चेष्टा मानते हैं। इसलिए उससे रुष्ट हो जाते हैं। कभी-कभी सम्बन्ध भी इस दम्भ की बलि चढ़ जाते हैं। घर के बड़े बुजुर्ग या मित्र हितकारी व तर्कसंगत परामर्श देते हैं परन्तु वे अपने मनोनुकूल नहीं होते। इसलिए वे प्रियजन भी अप्रिय लगने लगते हैं।
पति को अपनी पत्नी से, पत्नी को अपने पति से, माता-पिता को अपनी सन्तान से, बच्चों को अपने माता-पिता से, भाई को अपनी बहन से, बहन को अपने भाई से, मित्र को मित्र से, अध्यापक को शिष्यों से, शिष्यों को अध्यापक से, हर पड़ौसी को अपने ही दूसरे पड़ौसी से, मकान मालिक को किराएदार से, किराएदार को मकान मालिक से, बॉस को अपने अधीनस्थ कर्मचारियों से, कर्मचारियों को अपने बॉस से, राजा को प्रजा से, प्रजा को राजा से शिकायत रहती है। यानी सभी लोग ही इस शिकायत रूपी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त दिखाई देते हैं।
घर में होने वाली नित्य की शिकायतों से घर का माहौल खराब होता है। भाई-बन्धुओं में इससे खींचतान होती रहती है। कार्यालय का वातावरण विषैला हो जाता है। आस-पड़ौस में रहने का आनन्द नहीं आता। मकान मालिक और किराएदार का आपसी तालमेल बिगड़ता है। देश में अराजकता का साम्राज्य हो जाता है। कहने का अर्थ है कि इस शिकायत से सर्वत्र विनाश की ही गन्ध आती है। आपसी भाईचारा समाप्त होता है।
आजकल हर व्यक्ति स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है, इसलिए यह समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि सारा समय शिकवे-शिकायतों का दौर चलता ही रहता है। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे की विवशता को भी सुनने के लिए तैयार नहीं होता। जहाँ पर भी दो लोग मिलते हैं, वहीं शिकायतों का पिटारा खुल जाता है। बात कहाँ तक चली जाएगी, इसे कोई नहीं जानता। कोई भी व्यक्ति शिकायत करेगा तो मूड दोनों का ही खराब होगा। कोई किसी की बात न सुनना चाहता है और न ही मानना चाहता है। फिर इन शिकायतों के आदान-प्रदान का मेरे विचार में कोई औचित्य नहीं रह जाता।
इन शिकायतों को दूसरे से करने पर कुछ भी हासिल नहीं होता। इससे शिकायतकर्ता या शिकायत सुनने वाला कोई एक भी सन्तुष्ट नहीं होता। तो फिर इसका कोई लाभ किसी को भी नहीं होता। कभी-कभी तो इस शिकायत पुराण के कारण मनमुटाव इतना अधिक बढ़ जाता है कि बातचीत के सारे रास्ते ही बन्द हो जाते हैं और पीढ़ियों की शत्रुता जन्म ले लेती है। फिर करते रहो भुगतान पीढ़ी-दर-पीढ़ी।
सुनने-सुनाने और शिकवे-शिकायतों का यह सिलसिला थमने वाला नहीं है। प्रयास यही करना चाहिए कि दूसरे की बात को मन से न लगाया जाए। अपने मन को बड़ा बनाकर दूसरे को उसकी गलती के लिए उसे क्षमा कर देना चाहिए। इससे कटुता कम होती है और अपना मन अशान्त नहीं होता। एक क्षमा रूपी अस्त्र के मूल्य पर अपनी मानसिक शान्ति प्राप्त करने का यह सौदा बुरा नहीं है। इस नेक सुझाव पर विचार अवश्य कीजिएगा।
परमपिता परमात्मा हमें झोलियाँ भर-भरकर बिनमाँगे नेमते देता रहता है। फिर भी हम उससे सदा ही शिकायत करते रहते हैं। प्रभु से शिकायत करने के स्थान पर कृतज्ञता ज्ञापन करनी चाहिए। किसी भी कष्ट के समय प्रार्थना करनी चाहिए कि मालिक तेरी कृपा से मेरा कष्ट दूर हो रहा है, प्रभु अपनी कृपा हम पर बनाए रखना। ऐसा एक बार कीजिए फिर देखिए उस ईश्वर का चमत्कार।
चन्द्र प्रभा सूद
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