किसान जो हमारे अन्नदाता हैं उनकी दशा हमारे देश में हमेशा से ही शोचनीय रही है। इसका सबसे बड़ा कारण रहे हैं उनकी अशिक्षा और आर्थिक रूप से पिछड़ापन। हालांकि आज उनके बच्चे पढ़ने लगे हैं। फिर भी अभी बहुत कुछ करना है उनके लिए।
बहुत से गाँव इतने वर्षों की आजादी के बाद भी अभी तक शहरों से नहीं जुड़ पाए हैं, वहाँ पक्की सड़कें नहीं हैं। दिल्ली जो भारत की राजधानी है वहाँ भी लोग बिजली और पानी के संकट से यदा कदा जूझते रहते हैं तो उन दूर-दराज के गाँवों में तो यह समस्याएँ मुँह बाए खड़ी ही रहती हैं।
पहले समय में कृषि पूर्णरूपेण वर्षा पर आधारित रहती थी। आज भी उन स्थितियों में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ है। यद्यपि कृषि के लिए बहुत से आधुनिक यन्त्र बन गए हैं जिनका उपयोग किसान करते रहते हैं परन्तु फिर भी वर्षा उनके इरादों पर पानी फेर देती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि और असमय ओलावृष्टि आदि प्राकृतिक आपदाएँ उनकी फसलों को बरबाद कर देती हैं।
महंगाई के चलते उर्वरक, खाद और बीज इत्यादि दिन-प्रतिदिन बहुत महंगे होते जा रहे हैं। उनको खरीदने के लिए धन की आवश्यकता होती है। जिसे वह साहूकार से या बैंक से कर्ज के रूप में लेता है। यदि फसल अच्छी हो गई तो कर्ज का भुगतान कर दिया जाता है। परन्तु यदि दुर्भाग्यवश फसल बरबाद हो जाए तो फिर कर्ज चुका पाना असम्भव हो जाता है। किसान अच्छी फसल की आशा में बच्चों की शादी, घर की मुरम्मत आदि की योजनाएँ बनाता है। लेकिन जब फसल ही चौपट हो जाती है तब उसकी सारी योजनाएँ धरी की धरी रह जाती हैं।
पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे किसानों की जमीन के टुकड़े छोटे होते जा रहे हैं। उस पर मौसम की मार और कर्ज लिया धन उनकी कमर ही तोड़ देता है। वे असहाय हो जाते हैं। बैंकों से लिए कर्ज को न चुका पाने के कारण उनके गुँडानुमा एजेण्ट उनके मन में इतना आतंक भर देते हैं कि आत्महत्या के अतिरिक्त उन्हें और कोई उपाय नहीं सूझता।
पहले समय में साहूकार उन अनपढ़ किसानों को पीढ़ियों को थोड़े से कर्ज को न चुका पाने के कारण बंधक बना लिया करते थे। इसी विषय से सम्बन्धित स्कूल में पढ़ी हुई इंगलिश भाषा में लिखी कहानी 'A handful of wheat' यानि 'मुट्ठी भर अनाज' जो ऋण स्वरूप लिया गया था, उसकी याद आ रही है। इसके लेखक शायद मुलख राज आनन्द हैं।
लेखक ने इसमें लिखा है कि किसानों की दुर्दशा का वर्णन किया है। अपनी किसी आवश्यकता के कारण साहूकार से थोड़ा-सा ऋण लेता है और उस पर चक्रवृद्धि ब्याज के अनुसार उसका बढ़ता रहता ऋण कभी चुकाया गया माना नहीं जाता। फिर उस ऋण को चुकाने के लिए उसके बच्चों को सारी आयु उसी प्रक्रिया से गुजरने के लिए विवश होना पड़ता है।
पहले साहूकारों का आतंक होता था जो ब्याज के रूप में उनकी फसलें कटवाकर ले जाया करते थे और अब बैंकों का खौफ रहता है। इनके अतिरिक्त इन छोटे किसानों के पास अनाज सुरक्षित रखने के लिए भण्डार गृह भी नहीं होते। इन्हें औने-पौने भाव अपनी मेहनत से उगाई हुई फसल को दलालों को बेचना पड़ता है। मण्डियों में जाकर भी उन्हें अपनी फसल का उचित मूल्य नहीं मिल पाता।
सरकार और स्वयं सेवी संस्थाएँ किसानों की समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करते रहते हैं। उन सबके किए गए उपाय अभी किसानों की दशा को सुधारने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। हम सभी को भी उनके प्रति संवेदनशील होना चाहिए और उनके उत्थान के लिए मनन करना चाहिए। किसानों को सड़क पर उतारकर आन्दोलन करने के लिए यदि विवश होना पड़े तो बहुत दुख की बात है।
ऐसे किसान जो परिश्रम करके हमें जीवन देते हैं, हम उनके प्रति थोड़ा भी संवेदनशील नहीं हैं। वे किसान और उनके परिवारी जन दाने-दाने को तरसते हैं और हम सबका पेट भरने के लिए दिनोंदिन फाके करते हैं। हम उनके परिश्रम का मूल्य तो नहीं चुका सकते पर अन्न को सुरक्षित रखकर उनकी मेहनत का सम्मान तो कर सकते हैं। अपने झूठे अहं का प्रदर्शन करते हुए अपनी पार्टियों में अन्न को बरबाद होने से बचा सकते।
चन्द्र प्रभा सूद
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