जीवनकाल में लोकप्रिय होने वाले व्यक्ति को सदा विनम्र होना चाहिए। उसे अपने ज्ञान, धन-वैभव, सौन्दर्य, यौवन, शक्ति, कुल आदि का घमण्ड नहीं करना चाहिए। अपने लिए अभिमानसूचक शब्दों का प्रयोग करने से भी बचना चाहिए। इसी कड़ी में स्वयं के लिए यथासम्भव ‘हम’ शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार हर समय ‘मैं’ शब्द का उपयोग भी नहीं करना चाहिए। ऐसे मनुष्य को लोग अभिमानी कहकर उससे अपना पल्ला झाड़ने का ही प्रयास करते हैं।
बहुत से अपने बन्धु-बान्धव ऐसे होते हैं जो वास्तविक जीवन में दूसरों के साथ तो शतरंज का खेल खेलते ही रहते हैं पर अपनों को भी नहीं छोड़ते। यह बात विचारणीय है कि यदि कोई मनुष्य यह सोचता है कि वह किसी को धोखा देने में सफल हो गया है। इसलिए वह किसी की आँखों में धूल झोंक सकता है तो उसकी यह सोच सर्वथा अनुचित होती है। अथवा कहें तो वह दूसरों को नहीं स्वयं को ही धोखा दे रहा होता है।
इस संसार की अदालत में यदि वह अपने रुतबे या किसी अन्य कारण से सजा पाने से बच जाता है तो यह उसकी जीत हो गई है। इस संसार की अदालत से तो मनुष्य बरी हो सकता है पर उसे ईश्वर की अदालत में न्याय निश्चित ही मिलता है। धोखा देने वाले को भी बदले में कभी-न-कभी धोखा अवश्य खाना पड़ता है। उस समय मनुष्य को जो पीड़ा भुगतनी पड़ती है, वह असह्य होती है।
मनुष्य को हर किसी व्यक्ति पर इतना विश्वास नहीं करना चाहिए कि वह उसे इतना बड़ा धोखा दे जाए कि उसके दिए हुए जख्म से उभर पाना उसके लिए कठिन हो जाए। बाद में उसके पास फिर पश्चाताप करने के अतिरिक्त कोई चारा न बच पाए। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अपने दिल में किसी दूसरे को उतनी ही जगह देनी चाहिए जितने का पलट वार वह सहन कर पाने की सामर्थ्य उसमें हो अन्यथा जीवन भर रोने का सामान एकत्र हो जाएगा।
मनुष्य को अपना व्यवहार इतना सन्तुलित और सशक्त बनाना चाहिए कि यत्न करने पर भी कोई उसके चरित्र में कमी न खोज सके। उसके विषय में यदि कोई अनर्गल प्रलाप करे भी तो उसकी बात पर कोई भी विश्वास न करे। उल्टे दोषारोपण करने वाले को ही सबके सामने मुँह की खानी पड़ जाए। उसकी किरकिरी हो जाए और वह सबसे मुँह छुपाता फिरे।
वास्तव में मनुष्य को शुभचिन्तक की तलाश सदा करते रहना चाहिए। ताकि वह उससे अपनी हर समस्या का समाधन कर सके। अपने सुख-दुःख उसके साथ साझा कर सके। वह उससे हर प्रकार के विषयों पर बिना हिचकिचाए चर्चा कर सके। ऐसा सहृदय व महान व्यक्ति कभी किसी व्यक्ति को धोखा नहीं दे सकता, वह सदा सबके साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करता है।
आजकल समाज में बहुत विचित्र- सा चलन हो रहा है। वह यहाँ असफल लोगों की वह हंसी उडाता है और सफल लोगों से द्वेष करता है, जलता हैं। इस बात को सदा समरण रखना चाहिए कि सफल लोग बिना समय व्यर्थ गँवाए, इधर-उधर देखे अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर कदम बढ़ाते रहते हैं। वे न तो किसी को परेशान करते हैं और न ही किसी की अनावश्यक परवाह करते हैं। उन्हें किसी से भी कोई मतलब नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो वे न तीन में होते हैं और न तेरह में। वे बस अपनी ही धुन में रहते हैं।
हम कह सकते हैं कि लोकप्रिय होने के लिए अपने लक्ष्य या उद्देश्य में सफल होना भी आवश्यक होता है। सफलता न तो किसी की बपौती है और न ही इसे पाना टेढ़ी खीर है। कोई भी व्यक्ति कुछ छोटी-छोटी बातों को ध्यान रखकर सफलता के सोपनों पर चढ़ सकता है। यदि यह सिर पर चढ़कर बोलने लगे तो मनुष्य का पतन स्वाभाविक होता है। इसलिए सफलता प्राप्ति के साथ ही विनम्रता रूपी आभूषण को ग्रहण करना भी आवश्यक हो जाता है। तभी यह सफलता दीर्घकाल तक साथ निभाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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