व्रत शब्द का अर्थ होता है नियम का पालन करना। सारी प्रकृति यानी सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि सभी अपने-अपने व्रत का पालन करती है। हर मौसम अपने समय पर आता है। और तो और पशु-पक्षी तथा सभी जलचर व नभचर भी अपने लिए निश्चित नियमों का पालन करते हैं।
हम मनुष्य ही इस सृष्टि के ऐसे जीव हैं जो किसी नियम का पालन नहीं करना चाहते। जहाँ भी हमें सुविधा लगती है, हम उसके अनुसार नियमों को मोड़ लेना चाहते हैं। हमारी यही इच्छा होती है कि हम नियमों का उल्लँघन भले ही करें परन्तु हमें कोई रोके या टोके नहीं।
लोग भूखे रहने को व्रत की संज्ञा देते हैं। सारा दिन भूखे रहकर अपने शरीर को कष्ट देना किसी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता और न ही उसे व्रत कह सकते हैं। इस प्रकार करने से न किसी की आयु बढ़ती है और न ही घटती है। यदि ऐसे व्रतों से आयु बढ़ने लगे तो इस संसार में कोई मरेगा ही नहीं।
कुछ लोग अपने चारों ओर अग्नि जलाकर, कुछ लोग गड्डा खोदकर उसमें बैठकर, कुछ लोग एक टाँग पर खड़े होकर, कुछ लोग पेड़ पर लटककर साधना करने को व्रत का नाम देते हैं। ये सभी तरीके दूसरों को लुभाने के लिए प्रदर्शन मात्र हो सकते हैं परन्तु व्रत नहीं कहे जा सकते।
व्रत किसे कहते हैं, इसके विषय मे पद्मपुराण का कथन है-
हिंसातोSलीकत: स्तेयान्मैथुनाद् द्रव्यसंग्रहात्।
विरतिर्व्रतमुद्दिष्टं विधेयं तस्य धारणात्।।
अर्थात हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील (दुष्चरित्रता) और परिग्रह से विरक्त होना व्रत कहलाता है। ऐसा व्रत अवश्य ही धारण करना चाहिए।
वास्तव में मनुष्य यदि इन दुर्गुणों का त्याग करने का व्रत ले सके तो बहुत सारे अपराध करने से बच जाएगा। इससे समाज में होने वाले अपराध कम हो जाएँगे। तब न्याय व्यवस्था के चाबुक की आवश्यकता भी नहीं रह जाएगी।
व्रतों के विषय में भर्तृहरि जी नीतिशतकम् में कहते हैं -
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहयुतगते संभ्रमविधि:।
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं नाप्युपकृति:॥
अनुत्सेको लक्ष्म्यानिरभिभवसारा: पर कथा:।
सतां केनाद्दिष्टं विषमसिधाराव्रतमिदम्॥
अर्थात दान को गोपनीय रखना, अतिथि सत्कार करना, प्रिय करके भी शान्त रहना, सभा में उपकार का उल्लेख न करना, धन मे गर्व न करना, परचर्चा मे निन्दा को स्थान न देना- ये सज्जनों के विषम व्रत किसने बनाए हैं?
सज्जनों की प्रकृति में ही होता है इन कठोर व्रतों का पालन करना। बिना किसी प्रयास के ही वे इन नियमों का पालन करते हैं। कहते हैं दान इस प्रकार करना चाहिए कि एक हाथ से दो और दूसरे हाथ को ज्ञात न होने पाए। बहुत ही मुश्किल है पर सज्जन इसे निभाते हैं। परोपकार करके उसका ढिंढोरा नहीं पीटते, सरल व सहृदय होते हैं, उनमें रत्तीभर भी अहंकार नहीं होता है। वे किसी की निन्दा-चुगली करने में रुचि नहीं रखते।
ये सभी वाकई कठोर व्रत हैं जिनका पालन करना बच्चों का खेल नहीं है। पद्मपुराण में बताए गए और भर्तृहरि जी द्वारा सुझाए गए व्रतों का पालन करना ही श्रेयस्कर है। अनावश्यक रूप से स्वयं को कष्ट देकर, समाज के समक्ष प्रदर्शन करने के लिए रखे जाने वाले व्रतों का कोई औचित्य नहीं है।
हमारे आदी ग्रन्थों वेदों में तथाकथित व्रतों का विधान नहीं है। पश्चातवर्ती किन्हीं अज्ञ विद्वानों ने अनावश्यक ही शरीर को कष्ट देने वाले व्रतों को अपने स्वार्थ के लिए प्रचारित किया। साथ ही जन साधारण को इनका पालन न करने पर अमंगल होने का डर दिखाया।
अन्त में सुधी मित्रों से अनुरोध है कि इन खोखले ढकोसलों का त्याग कीजिए। उनके स्थान पर व्रत लीजिए झूठ न बोलने का, चोरी आदि अनैतिक कार्य न करने का, दुर्बलों को सताने के स्थान पर रक्षा करने का, देश, धर्म व समाज के लिए हितकर कार्यो को करने का व्रत लें।
चन्द्र प्रभा सूद
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