संस्कार पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित किए जाते रहते हैं। उनसे ही मनुष्य के कुल या परिवार की एक पहचान बनती है। मनुष्य अपने संस्कारों की बदौलत अस्तित्व में आता है। उसके संस्कार ही इस समाज में उसे महान बनाते हैं और एक सुनिश्चित स्थान भी देते हैं। संस्कारों से बढ़कर अन्य कोई और दौलत मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण नहीँ हो सकती।
कुछ दशक पूर्व तक लोग अपने बच्चों का रिश्ता तय करने के समय उनके संस्कारों को महत्त्व देते थे, धन-सम्पत्ति को नहीं। ऐसे परिवार में सम्बन्ध जोड़ना वास्तव में सौभाग्य मन जाता था। इसका कारण यह था कि ऐसे बच्चे परिवार के विरुद्ध जाकर कुछ अनर्थ नहीं कर सकते। वे बच्चे परिवार की मर्यादा को खण्डित करने वाला कोई कार्य नहीं कर सकते। उन पर परिवार का पूरा दबाव बना रहता है। वे भी अपने बड़े-बुजुर्गों का मान रखने वाले होते हैं।
इस सच्चाई से कदापि मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि संस्कारविहीन मनुष्य को धरातल पर पटक देने में लोग देर नहीं करते। जिन लोगों में सद्संस्कारों तथा आचरण की कमी होती है, वही सामने वाले को किसी-न-किसी बहाने से नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। वे लोग अपने मिथ्या अभिमान के कारण स्वयं को किसी भी तरह ईश्वर से कम नहीं समझते।
भारतीय संस्कृति के अनुसार घर पर आया हुआ अतिथि ईश्वर का ही रूप होता है, उसका अपमान कभी नहीं करना चाहिए। यदि उसका अपमान कोई मनुष्य करता है तब उसका अपमान यह समाज करता है। किसी के भी प्रति अपने मन में दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए। अपने मन में जो कुछ है, उसे बिना लाग लपेट के स्पष्ट कह देना चाहिए। तभी मनोमालिन्य दूर होने की सम्भावना रहती है। इसका कारण कह सकते हैं कि सच बोलने से फैसले किए जाते हैं और झूठ बोलने पर धीरे-धीरे फासले बढ़ने लगते हैं।
मनुष्य को अपने संस्कारों पर सदा मान और भरोसा होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति उसे क्रोध दिलाकर संस्कार विमुख करने का प्रयास करे भी तो उसकी चाल में उसे फंसना नहीं चाहिए। परन्तु यदि उसका विरोधी अपने उद्देश्य में सफल हो जाता हैं तो समझ लेना चाहिए कि उसके हाथ की कठपुतली बनने में उसे देर नहीँ लगेगी। ऐसी स्थिति वास्तव में बहुत ही दुखदायी होती है।
इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति जाने-अनजाने नजरअन्दाज कर रहा है तब भी उसका बुरा नहीं मानना चाहिए। यह सब उसकी मजबूरी हो सकता है। इस बात को सदैव स्मरण रखना चाहिए अथवा गाँठ बाँधकर रखना चाहिए कि अपनी हैसियत से बाहर आने वाली प्रायः सभी मंहगी वस्तुओं को लोग अनदेखा कर देते हैं। फिर उस व्यक्ति विशेष की महानता के विषय में सोचकर ही शायद उसकी ओर हाथ नहीं बढ़ाते। इसलिए नाराज होने के स्थान पर उससे सहानुभूति का भाव रखना चाहिए। यदि उचित समझो तो हाथ बढ़ाकर उस इन्सान को उपकृत करने का प्रयास स्वयं किया जा सकता है।
संस्कारी या सुसंस्कृत लोग अपनी गलती को स्वीकार करने में कभी देर नहीं करते। उसके लिए किसी बच्चे से भी यदि उन्हें क्षमा माँगनी पड़े तो वे कदापि संकोच नहीं करते। वे अपने कर्तव्यों के प्रति सदा सावधान रहते हैं। यदि उनसे कोई अपराध हो जाए तो उसे त्यागने में कभी देर नहीँ करते। वे जानते हैं कि यात्रा जितनी लम्बी हो जाएगी, वहाँ से वापसी उतनी ही कठिन हो जाती हैं।
संस्कारी और असंस्कारी लोगों के आचार-व्यवहार में अन्तर बिना प्रयास के ही दिखाई देता है। अपने आसपास ही दोनों प्रकार के लोगों से वास्ता पड़ता ही राहट है। संस्कार कभी मनुष्य को नीचा नहीं देखने देते। वे उत्तरोत्तर उसकी मानसिक तथा आत्मिक उन्नति करते रहते हैं। अच्छे संस्कार मनुष्य की थाती होते हैं। यानी वे उसकी सबसे बड़ी पूँजी होते हैं। इन्हें यथासम्भव सहेजकर रखना चाहिए, इन जीवनमूल्यों को कभी अपने से दूर नहीं होने देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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