समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,
आज खोजते उन्हें बुलाने वर्त्तमान के पल आये !
"शैल-श्रृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,
किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे ?
दो वज्रों का घोष, विकट संघात धरा पर जारी है,
वह्नि-रेणु, चुन स्वप्न सजा लो, छिटक रही चिनगारी है ।
रण की घडी, जलन की बेला, रुधिर- पंक में गान करो,
अपनी आहुति धरो कुण्ड में, कुछ तुम भी बलिदान करो ।"
वर्त्तमान के हठी बाल ये रोते हैं, बिललाते हैं,
रह-रह हृदय चौंक उठता है, स्वप्न टूटते जाते हैं ।
श्रृंग छोड़ मिट्टी पर आया, किंतु, कहो क्या गाऊँ मैं ?
जहाँ बोलना पाप, वहाँ क्या गीतों से समझाऊँ मैं ?
विधि का शाप, सुरभि-साँसों पर लिखूँ चरित मैं क्यारी का,
चौराहे पर बँधी जीभ से मोल करूँ चिनगारी का ?
यह बेबसी, गगन में भी छूता धरती का दाह मुझे,
ऐसा घमासान ! मिट्टी पर मिली न अब तक राह मुझे ।
तुम्हें चाह जिसकी वह कलिका इस वन में खिलती न कहीं,
खोज रहा मैं जिसे, जिन्दगी वह मुझको मिलती न कहीं ।
किन्तु, न बुझती जलन हृदय की, हाय, कहाँ तक हुक सहूँ ?
बुलबुल सीना चाक करे औ' मैं फूलों-सा मूक रहूँ ?
रण की घडी, जलन की वेला, तो मैं भी कुछ गाऊँगा,
सुलग रही यदि शिखा यज्ञ की अपना हवन चढाऊँगा ।
'वर्त्तमान की जय', अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे,
एक राग मेरा भी रण में, बन्दी की जंजीर बजे ।
नई किरण की सखी, बाँसुरी, के छिदों से कूक उठे,
सांस- साँस पर खडूग-धार पर नाच हृदय की हुक उठे ।
नये प्रात के अरुण ! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल ! उठ जागो, हुंकारो, कुछ गान करो ।
किसकी आहट ? कौन पधारा ? पहचानो, टूक ध्यान करो,
जगो भूमि ! अति निकट अनागत का स्वागत-सम्मान करो ।
'जय हो', युग के देव पधारो ! विकट, रुद्र, हे अभिमानी !
मुक्त-केशिनी खडी द्वार पर कब से भावों की रानी ।
अमृत-गीत तुम रचो कलानिधि ! बुनो कल्पना की जाली,
तिमिर-ज्योति की समर-भूमि का मैं चारण, मैं वैताली ।
(होलिकोत्सव, १९९५,वि०)