सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !
बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।
हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,
मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।
गूँजे तुमुल विषाण गगन में गाओ, है गाओं किन्नर !
उतरो भावुक प्रलय ! भूमि पर आओं शिव ! आओ सुन्दर ।
बजे दीप्ति का राग गगन में, बजे किरण का तार बजे;
अघ पीनेवाली भीषण ज्वालाओं का त्योहार सजे ।
हिले 'आल्प्स' का मूल, हिले 'राकी', छोटा जापान हिले,
मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, अब तो हिंदुस्तान हिले ।
चोट पडी भूमध्य-सिन्धु में, नील-तटी में शोर हुआ;
मर्कट चढ़े कोट पर देखो, उठो, 'सिलासी' ! भोर हुआ ।
हुआ विधाता वाम, 'जिनेवा'-बीच सुधी चकराते हैं;
बुझा रहे ज्वाला साँसों से, कर से आँच लगाते हैं !
'राइन'-तट पर खिली सभ्यता, 'हिटलर' खड़ा कौन बोले ?
सस्ता खून यहूदी का है, 'नाजी' ! निज 'स्वस्तिक' धो ले ।
ले हिलोर 'अतलांत' ! भयंकर, जाग, प्रलय का बाण चला;
जाग प्रशान्त, कौन जाने, किस ओर आज तुफान चला?
'दजला' ! चेत, 'फुरात' ! सजग हो, जाग-जाग ओ शंघाई !
लाल सिन्धु ! बोले किस पर यह घटा घुमड़ छाने आयी ।
बर्फों की दीवार खडी, ऊँचे-नीचे पर्वत ढालू,
तो भी पंजा बजा रहा है साइबेरिया का भालू ।
काबुल मूक, दूर "यूरल" है, क्या भोली 'आमु' बोले ?
उद्वेलित 'भूमध्य', स्वेज का मुख इटली कैसे खोले ?
श्वेतानन स्वर्गीय देव हम ! ये हब्शी रेगिस्तानी !
ईसा साखी रहें, इसाई दुनिया ने बर्छी तानी ।
(सन् १९३५ ई० में रक्तपिपासु इटैलियन फैसिस्टों द्वारा
अबीसीनिया पर आक्रमण के अवसर पर लिखित)