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हाहाकार

16 फरवरी 2022

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दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में, 

तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में ! 

 

उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है, 

जहाँ पथिक जल की झांकी में एक बूँद के लिए विकल है। 

 

घर-घर देखा धुआं पर, सुना, विश्व में आग लगी है, 

'जल ही जल' जन-जन रटता है, कंठ-कंठ में प्यास जगी है। 

 

सूख गया रस श्याम गगन का एक घुन विष जग का पीकर, 

ऊपर ही ऊपर जल जाते सृष्टि-ताप से पावस सीकर ! 

 

मनुज-वंश के अश्रु-योग से जिस दिन हुआ सिन्धु-जल खारा, 

गिरी ने चीर लिया निज उर, मैं ललक पड़ा लाख जल की धारा। 

 

पर विस्मित रह गया, लगी पीने जब वही मुझे सुधी खोकर, 

कहती- 'गिरी को फाड़ चली हूँ मैं भी बड़ी विपासित होकर'। 

 

यह वैषम्य नियति का मुझपर, किस्मत बढ़ी धन्य उन कवि की, 

जिनके हित कविते ! बनतीं तुम झांकी नग्न अनावृत छवि की । 

 

दुखी विश्व से दूर जिन्हें लेकर आकाश कुसुम के वन में, 

खेल रहीं तुम अलस जलद सी किसी दिव्य नंदन-कानन में। 

 

भूषन-वासन जहाँ कुसुमों के, कहीं कुलिस का नाम नहीं है। 

दिन-भर सुमन-हार-गुम्फन को छोड़ दूसरा काम नहीं है। 

 

वही धन्य, जिनको लेकर तुम बसीं कल्पना के शतदल पर, 

जिनका स्वप्न तोड़ पाती है मिटटी नहीं चरण-ताल बजकर ! 

 

मेरी भी यह चाह विलासिनी ! सुन्दरता को शीश झुकाऊं, 

जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो, उधर वसंतानिल बन जाऊं ! 

 

एक चाह कवि की यह देखूं, छिपकर कभी पहुँच मालिनी तट, 

किस प्रकार चलती मुनिबाला यौवनवती लिए कटी पर घाट ! 

 

झांकूं उस माधवी-कुंज में, जो बन रहा स्वर्ग कानन में; 

प्रथम परस की जहाँ लालिमा सिहर रही तरुणी- आनन में । 

 

जनारण्य से दूर स्वप्न में मैं भी निज संसार बसाऊँ, 

जग का आर्त्त नाद सुन अपना हृदय फाड़ने से बच जाऊँ । 

 

मिट जाती ज्यों किरण बिहँस सारा दिन कर लहरों पर झिल--मिल, 

खो जाऊँ त्यों हर्ष मनाता, मैं भी निज स्वानों से हिलमिल । 

 

पर, नभ में न कुटी बन पाती, मैंने कितनी युक्ति लगायी, 

आधी मिटती कभी कल्पना, कभी उजड़ती बनी-बनायी । 

 

रह-रह पंखहीन खग-सा मैं गिर पड़ता भू की हलचल में ; 

झटिका एक बहा ले जाती स्वप्न-राज्य आँसू के जल में । 

 

कुपित देव की शाप-शिखा जब विद्युत् बन सिर पर छा जाती, 

उठता चीख हृदय विद्रोही, अन्ध भावनाएँ जल जातीं । 

 

निरख प्रतीची-रक्त-मेघ में अस्तप्राय रवि का मुख-मंडल, 

पिघल-पिघल कर चू पड़ता है दृग से क्षुभित, विवश अंतस्तल । 

 

रणित विषम रागिनी मरण की आज विकट हिंसा-उत्सव में; 

दबे हुए अभिशाप मनुज के लगे उदित होने फिर भव में । 

 

शोणित से रंग रही शुभ्र पट संस्कृति निठुर लिए करवालें, 

जला रही निज सिंहपौर पर दलित-दीन की अस्थि मशालें। 

 

घूम रही सभ्यता दानवे, 'शांति ! शांति !' करती भूतल में, 

पूछे कोई, भिगो रही वह क्यों अपने विष दन्त गरल में। 

 

टांक रही हो सुई चरम पर, शांत रहें हम, तनिक न डोलें, 

यही शान्ति, गर्दन कटती हो, पर हम अपनी जीभ न खोलें ? 

 

बोलें कुछ मत क्षुधित, रोटियां श्वान छीन खाएं यदि कर से, 

यही शांति, जब वे आयें, हम निकल जाएँ चुपके निज घर से ? 

 

हब्शी पढ़ें पाठ संस्कृति के खड़े गोलियों की छाया में; 

यही शान्ति, वे मौन रहें जब आग लगे उनकी काया में ? 

 

चूस रहे हों दनुज रक्त, पर, हों मत दलित प्रबुद्ध कुमारी ! 

हो न कहीं प्रतिकार पाप का, शांति या कि यह युद्ध कुमारी ! 

 

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है, 

छाते कभी संग बैलों का , ऐसा कोई याम नहीं है। 

 

मुख में जीभ, शक्ति भुज में, जीवन में सुख का नाम नहीं है, 

वसन कहाँ ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है। 

 

विभव-स्वप्न से दूर, भूमि पर यह दुखमय संसार कुमारी! 

खलिहानों में जहाँ मचा करता है हाहाकार कुमारी! 

 

बैलों के ये बंधू वर्ष भर, क्या जाने, कैसे जीते हैं ? 

बंधी जीभ, आँखे विषष्ण, गम खा, शायद आंसू पीते हैं। 

 

पर, शिशु का क्या हाल, सीख पाया न अभी जो आंसू पीना ? 

चूस-चूस सुखा स्तन माँ का सो जाता रो-विलप नगीना। 

 

विवश देखती माँ, अंचल से नन्ही जान तड़प उड़ जाती, 

अपना रक्त पिला देती यदि फटती आज वज्र की छाती। 

 

कब्र-कब्र में अबुध बालकों की भूखी हड्डी रोती है, 

'दूध-दूध !' की कदम कदम पर सारी रात सदा होती है। 

 

'दूध-दूध !' ओ वत्स ! मंदिरों में बहरे पाषाण यहाँ हैं, 

'दूध-दूध !' तारे, बोलो, इन बच्चों के भगवान् कहाँ हैं ? 

 

'दूध-दूध !' दुनिया सोती है, लाऊं दूध कहाँ, किस घर से ? 

'दूध-दूध !' हे देव गगन के ! कुछ बूँदें टपका अम्बर से ! 

 

'दूध-दूध !' गंगा तू ही अपने पानी को दूध बना दे, 

'दूध-दूध !' उफ़ ! है कोई, भूखे मुर्दों को जरा मना दे ? 

 

'दूध-दूध !' फिर 'दूध !' अरे क्या याद दुख की खो न सकोगे ? 

'दूध-दूध !' मरकर भी क्या टीम बिना दूध के सो न सकोगे ? 

 

वे भी यहीं, दूध से जो अपने श्वानों को नहलाते हैं। 

वे बच्चे भी यही, कब्र में 'दूध-दूध !' जो चिल्लाते हैं। 

 

बेक़सूर, नन्हे देवों का शाप विश्व पर पड़ा हिमालय ! 

हिला चाहता मूल सृष्टि का, देख रहा क्या खड़ा हिमालय ? 

 

'दूध-दूध !' फिर सदा कब्र की, आज दूध लाना ही होगा, 

जहाँ दूध के घड़े मिलें, उस मंजिल पर जाना ही होगा ! 

 

जय मानव की धरा साक्षिणी ! जाय विशाल अम्बर की जय हो ! 

जय गिरिराज ! विन्ध्यगिरी, जय-जय ! हिंदमहासागर की जय हो ! 

 

हटो व्योम के मेघ ! पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, 

'दूध, दूध ! ...' ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं ! 

 

(१९३७ ई०) 

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रचनाएँ
हुंकार
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रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।
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हुंकार

16 फरवरी 2022
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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं  स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं  बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं  नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं     समाना चाहता है, जो बीन उर में  विकल उस शुन्य की झनंकार

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हाहाकार

16 फरवरी 2022
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दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में,  तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में !    उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,  जहाँ पथिक जल की झांकी म

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वर्त्तमान का निमन्त्रण

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 समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,  आज खोजते उन्हें बुलाने वर्त्तमान के पल आये !     "शैल-श्रृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,  किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे

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दिगम्बरी

16 फरवरी 2022
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 उदय-गिरी पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला,  दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।     (१) तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,  खड़े हैं मुन्तजिर कब से नए अभियानवाले !     प्रतीक्षा है, सु

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विपथगा

16 फरवरी 2022
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 झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,  झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,     मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में  अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !  मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों

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अनल-किरीट

16 फरवरी 2022
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 लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले !  कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोनेवाले !     १  धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,  अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुडाते हैं।     पड़ी स

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कविता का हठ

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 "बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ?  कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री-हीन हुआ ?  संध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन-आलोक मलीन हुआ ?  किस छाया में छिपी विभा ? श्रृंगार किधर उड्

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फूलों के पूर्व जन्म

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प्रिय की पृथुल जांघ पर लेटी करती थीं जो रंगरलियाँ,  उनकी कब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ।     पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली,  वे भौरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली। 

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दिल्ली

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यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !  कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?  मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?  यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !     इ

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शहीद-स्तवन (कलम, आज उनकी जय बोल)

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 (उनके लिए जो जा चुके हैं)  कलम, आज उनकी जय बोल     जला अस्थियाँ बारी-बारी  छिटकाई जिनने चिंगारी,  जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।  कलम, आज उनकी जय बोल ।     जो अगणित लघु दीप

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आलोकधन्वा

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ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,  मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।  रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,  किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।     मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा स

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सिपाही

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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,  ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ ।  जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,  सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना ।    

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शब्द-वेध

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खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?  ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?     लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?  ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ? 

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मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी

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 सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !  बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।     हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,  मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।    

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तकदीर का बँटवारा

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 है बँधी तकदीर जलती डार से,  आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ?  वेदना मन की सही जाती नहीं,  यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ?     पापिनी कह जीभ काटी जायगी  आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,  हड्डियाँ जल जायें

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बसन्त के नाम पर

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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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हिमालय

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 मेरे नगपति! मेरे विशाल!     साकार, दिव्य, गौरव विराट्,  पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!  मेरी जननी के हिम-किरीट!  मेरे भारत के दिव्य भाल!  मेरे नगपति! मेरे विशाल!     युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,

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असमय आह्वान

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 (1)  समय-असमय का तनिक न ध्यान,  मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?     पहन मुक्ता के युग अवतंस,  रत्न-गुंफित खोले कच-जाल  बजाती मघुर चरण-मंजीर,  आ गयी नभ में रजनी-बाल ।     झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

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