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हिमालय

16 फरवरी 2022

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 मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

  

साकार, दिव्य, गौरव विराट्, 

पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! 

मेरी जननी के हिम-किरीट! 

मेरे भारत के दिव्य भाल! 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

  

युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, 

युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, 

निस्सीम व्योम में तान रहा 

युग से किस महिमा का वितान? 

कैसी अखंड यह चिर-समाधि? 

यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? 

तू महाशून्य में खोज रहा 

किस जटिल समस्या का निदान? 

उलझन का कैसा विषम जाल? 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

  

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! 

पल भर को तो कर दृगुन्मेष! 

रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल 

है तड़प रहा पद पर स्वदेश। 

  

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, 

गंगा, यमुना की अमिय-धार 

जिस पुण्यभूमि की ओर बही 

तेरी विगलित करुणा उदार, 

  

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त 

सीमापति! तू ने की पुकार, 

'पद-दलित इसे करना पीछे 

पहले ले मेरा सिर उतार।' 

  

उस पुण्यभूमि पर आज तपी! 

रे, आन पड़ा संकट कराल, 

व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे 

डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

  

कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा 

कितना मेरा वैभव अशेष! 

तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर 

वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। 

  

किन द्रौपदियों के बाल खुले ? 

किन किन कलियों का अन्त हुआ ? 

कह हृदय खोल चित्तौर ! यहाँ 

कितने दिन ज्वाल-वसन्त हुआ ? 

  

पूछे, सिकता - कण से हिमपति ! 

तेरा वह राजस्थान कहाँ ? 

वन - वन स्वतंत्रता - दीप लिये 

फिरनेवाला बलवान कहाँ ? 

  

तू पूछ, अवध से, राम कहाँ ? 

वृन्दा! बोलो, घनश्याम कहाँ ? 

ओ मगध ! कहाँ मेरे अशोक ? 

वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ? 

  

पैरों पर ही है पडी हुई 

मिथिला भिखारिणी सुकुमारी, 

तू पूछ, कहाँ इसने खोईं 

अपनी अनन्त निधियां सारी ? 

  

री कपिलवस्तु ! कह, बुध्ददेव 

के वे मंगल - उपदेश कहाँ ? 

तिब्बत, इरान, जापान, चीन 

तक गये हुए सन्देश कहाँ ? 

  

वैशाली के भग्नावशेष से 

पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? 

ओ री उदास गण्डकी! बता 

विद्यापति कवि के गान कहाँ? 

  

तू तरुण देश से पूछ अरे, 

गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग? 

अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी 

यह सुलग रही है कौन आग? 

  

  

प्राची के प्रांगण-बीच देख, 

जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल, 

तू सिंहनाद कर जाग तपी! 

मेरे नगपति! मेरे विशाल! 

  

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ, 

जाने दे उनको स्वर्ग धीर, 

पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा, 

लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। 

  

कह दे शंकर से, आज करें 

वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार। 

सारे भारत में गूँज उठे, 

'हर-हर-बम' का फिर महोच्चार। 

  

ले अंगडाई हिल उठे धरा 

कर निज विराट स्वर में निनाद 

तू शैलीराट हुँकार भरे 

फट जाए कुहा, भागे प्रमाद 

  

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद 

रे तपी आज तप का न काल 

नवयुग-शंखध्वनि जगा रही 

तू जाग, जाग, मेरे विशाल ! 

  

रचनाकाल १९३३  

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रचनाएँ
हुंकार
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रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।
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हुंकार

16 फरवरी 2022
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सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं  स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं  बँधा हूँ, स्वपन हूँ, लघु वृत हूँ मैं  नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं     समाना चाहता है, जो बीन उर में  विकल उस शुन्य की झनंकार

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हाहाकार

16 फरवरी 2022
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दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में,  तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में !    उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,  जहाँ पथिक जल की झांकी म

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वर्त्तमान का निमन्त्रण

16 फरवरी 2022
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 समय-ढूह की ओर सिसकते मेरे गीत विकल धाये,  आज खोजते उन्हें बुलाने वर्त्तमान के पल आये !     "शैल-श्रृंग चढ़ समय-सिन्धु के आर-पार तुम हेर रहे,  किन्तु, ज्ञात क्या तुम्हें भूमि का कौन दनुज पथ घेर रहे

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दिगम्बरी

16 फरवरी 2022
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 उदय-गिरी पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला,  दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।     (१) तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,  खड़े हैं मुन्तजिर कब से नए अभियानवाले !     प्रतीक्षा है, सु

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विपथगा

16 फरवरी 2022
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 झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,  झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,     मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में  अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !  मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों

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अनल-किरीट

16 फरवरी 2022
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 लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले !  कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोनेवाले !     १  धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,  अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुडाते हैं।     पड़ी स

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कविता का हठ

16 फरवरी 2022
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 "बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ?  कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री-हीन हुआ ?  संध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन-आलोक मलीन हुआ ?  किस छाया में छिपी विभा ? श्रृंगार किधर उड्

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फूलों के पूर्व जन्म

16 फरवरी 2022
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प्रिय की पृथुल जांघ पर लेटी करती थीं जो रंगरलियाँ,  उनकी कब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ।     पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली,  वे भौरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली। 

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दिल्ली

16 फरवरी 2022
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यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !  कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?  मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?  यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !     इ

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शहीद-स्तवन (कलम, आज उनकी जय बोल)

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 (उनके लिए जो जा चुके हैं)  कलम, आज उनकी जय बोल     जला अस्थियाँ बारी-बारी  छिटकाई जिनने चिंगारी,  जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।  कलम, आज उनकी जय बोल ।     जो अगणित लघु दीप

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आलोकधन्वा

16 फरवरी 2022
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ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,  मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।  रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,  किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।     मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा स

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सिपाही

16 फरवरी 2022
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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,  ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ ।  जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,  सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना ।    

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शब्द-वेध

16 फरवरी 2022
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खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?  ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?     लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?  ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ? 

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मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी

16 फरवरी 2022
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 सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !  बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।     हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,  मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।    

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तकदीर का बँटवारा

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 है बँधी तकदीर जलती डार से,  आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ?  वेदना मन की सही जाती नहीं,  यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ?     पापिनी कह जीभ काटी जायगी  आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,  हड्डियाँ जल जायें

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बसन्त के नाम पर

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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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हिमालय

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 मेरे नगपति! मेरे विशाल!     साकार, दिव्य, गौरव विराट्,  पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!  मेरी जननी के हिम-किरीट!  मेरे भारत के दिव्य भाल!  मेरे नगपति! मेरे विशाल!     युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,

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असमय आह्वान

16 फरवरी 2022
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 (1)  समय-असमय का तनिक न ध्यान,  मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?     पहन मुक्ता के युग अवतंस,  रत्न-गुंफित खोले कच-जाल  बजाती मघुर चरण-मंजीर,  आ गयी नभ में रजनी-बाल ।     झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

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