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कविता का हठ

16 फरवरी 2022

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 "बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ? 

कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री-हीन हुआ ? 

संध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन-आलोक मलीन हुआ ? 

किस छाया में छिपी विभा ? श्रृंगार किधर उड्डीन हुआ ? 

  

इस अविकच यौवन पर रूपसि, बता, श्वेत साड़ी कैसी ? 

आज असंग चिता पर सोने की यह तैयारी कैसी ? 

आँखों से जलधार, हिचकियों पर हिचकी जारी कैसी ? 

अरी बोल, तुझ पर विपत्ति आयी यह सुकुमारी ! कैसी ?" 

  

यों कहते-कहते मैं रोया, रुद्ध हुई मेरी वाणी, 

ढार मार रो पडी लिपट कर मुझ से कविता कल्याणी । 

"मेरे कवि ! मेरे सुहाग ! मेरे राजा ! किस ओर चले ? 

चार दिनों का नेह लगा रे छली ! आज क्यों छोड़ चले ? 

  

"वन-फूलों से घिरी कुटी क्यों आज नहीं मन को भाती ? 

राज-वाटिका की हरीतिमा हाय, तुझे क्यों ललचाती ? 

करुणा की मैं सुता बिना पतझड़ कैसे जी पाऊँगी ? 

कवि ! बसन्त मत बुला, हाय, मैं विभा बीच खो जाऊँगी । 

  

"खंडहर की मैं दीन भिखारिन, अट्टालिका नहीं लूँगी, 

है सौगन्ध, शीश पर तेरे रखने मुकुट नहीं दूंगी। 

तू जायेगा उधर, इधर मैं रो-रो दिवस बिताऊँगी, 

खंडहर में नीरव निशीथ में रोऊँगी, चिल्लाऊँगी । 

  

"व्योम-कुंज की सखी कल्पना उतर सकेगी धूलों में ? 

नरगिस के प्रेमी कवि ढूंढेंगे मुझको वन-फूलों में ? 

हँस-हँस कलम नोंक से चुन रजकण से कौन उठायेगा? 

ठुकरायी करुणा का कण हूँ, मन में कौन बिठायेगा ? 

  

"जीवन-रस पीने को देगा, ऐसा कौन यहाँ दानी ? 

उर की दिव्य व्यथा कह अपनायेगी दुनिया दीवानी? 

गौरव के भग्नावशेष पर जब मैं अश्रु बहाऊँगी, 

कौन अश्रु पोंछेगा, पल भर कहाँ शान्ति मैं पाऊँगी ? 

  

"किसके साथ कहो खेलूँगी दूबों की हरियाली में ? 

कौन साथ मिल कर रोयेगा नालन्दा-वैशाली में ? 

कुसुम पहन मैं लिये विपंची घुमूंगी यमुना-तीरे, 

किन्तु, कौन अंचल भर देगा चुन-चुन धूल भरे हीरे ? 

  

"तेरे कण्ठ-बीच कवि ! मैं बनकर युग-धर्म पुकार चुकी, 

प्रकृति-पक्ष ले रक्त-शोषिणी संस्कृति को ललकार चुकी । 

वार चुकी युग पर तन-मन-धन, अपना लक्ष्य विचार चुकी, 

कवे ! तुम्हारे महायज्ञ की आहुति कर तैयार चुकी । 

"उठा अमर तूलिका, स्वर्ग का भू पर चित्र बनाऊँगी, 

अमापूर्ण जग के आँगन में आज चन्द्रिका लाऊँगी । 

रुला-रुला आँसू में धो जगती की मैल बहाऊँगी, 

अपनी दिव्य शक्ति का परिचय भूतल को बतलाऊँगी । 

  

"तू संदेश वहन कर मेरा, महागान मैं गाऊँगी, 

एक विश्व के लिए लाख स्वर्गों को मैं ललचाऊँगी । 

वहन करूँगी कीर्ति जगत में बन नवीन युग की वाणी, 

ग्लानि न कर संगिनी प्राण की, हूँ मैं भावों की रानी ।" 

  

(१९३४ ई०)  

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रचनाएँ
हुंकार
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रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।
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हुंकार

16 फरवरी 2022
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हाहाकार

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वर्त्तमान का निमन्त्रण

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दिगम्बरी

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 उदय-गिरी पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला,  दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।     (१) तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,  खड़े हैं मुन्तजिर कब से नए अभियानवाले !     प्रतीक्षा है, सु

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विपथगा

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फूलों के पूर्व जन्म

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प्रिय की पृथुल जांघ पर लेटी करती थीं जो रंगरलियाँ,  उनकी कब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ।     पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली,  वे भौरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली। 

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दिल्ली

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यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में !  कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ?  मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ?  यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में !     इ

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शहीद-स्तवन (कलम, आज उनकी जय बोल)

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 (उनके लिए जो जा चुके हैं)  कलम, आज उनकी जय बोल     जला अस्थियाँ बारी-बारी  छिटकाई जिनने चिंगारी,  जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।  कलम, आज उनकी जय बोल ।     जो अगणित लघु दीप

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आलोकधन्वा

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ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,  मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।  रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,  किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।     मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा स

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सिपाही

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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,  ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ ।  जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,  सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना ।    

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शब्द-वेध

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खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?  ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?     लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?  ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ? 

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मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी

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 सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !  बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।     हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,  मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।    

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तकदीर का बँटवारा

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 है बँधी तकदीर जलती डार से,  आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ?  वेदना मन की सही जाती नहीं,  यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ?     पापिनी कह जीभ काटी जायगी  आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,  हड्डियाँ जल जायें

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बसन्त के नाम पर

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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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हिमालय

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 मेरे नगपति! मेरे विशाल!     साकार, दिव्य, गौरव विराट्,  पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!  मेरी जननी के हिम-किरीट!  मेरे भारत के दिव्य भाल!  मेरे नगपति! मेरे विशाल!     युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,

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असमय आह्वान

16 फरवरी 2022
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 (1)  समय-असमय का तनिक न ध्यान,  मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?     पहन मुक्ता के युग अवतंस,  रत्न-गुंफित खोले कच-जाल  बजाती मघुर चरण-मंजीर,  आ गयी नभ में रजनी-बाल ।     झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

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