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असमय आह्वान

16 फरवरी 2022

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 (1) 

समय-असमय का तनिक न ध्यान, 

मोहिनी, यह कैसा आह्वान ? 

  

पहन मुक्ता के युग अवतंस, 

रत्न-गुंफित खोले कच-जाल 

बजाती मघुर चरण-मंजीर, 

आ गयी नभ में रजनी-बाल । 

  

झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

मिलन-आकुलता से द्युतिमान, 

भेद प्राची का कज्जल-भाल, 

बढ़ा ऊपर विधु वेपथुमान । 

  

गया दिन धूलि-धूम के बीच 

तुम्हारा करते जय-जयकार, 

देखने आया था इस सांझ, 

पूर्ण विधु का मादक श्रृंगार । 

  

एक पल सुधा-वृष्टि के बीच 

जुड़ा पाये न क्लान्त मन-प्राण, 

कि सहसा गूंज उठा सब ओर 

तुम्हारा चिर-परिचित आह्वान । 

  

(2) 

यह कैसा आह्वान ! 

समय-असमय का तनिक न ध्यान । 

  

झुकी जातीं पल्कें निस्पन्द 

दिवस के श्रम का लेकर भार, 

रहे दृग में क्रम-क्रम से खेल 

नये, भोले, लघु स्वप्न-सुकुमार । 

  

रक्त-कर्दम में दिन-भर फूंक 

रजत-श्रृंगी से भैरव-नाद, 

अभी लगता है कितना मधुर 

चाँदनी का सुनना संवाद ! 

  

दग्ध करती दिन-भर सब अंग 

तुम्हारे मरु की जलती धूल; 

निशा में ही खिल पाते देवि ! 

कल्पना के उन्मादक-फूल । 

  

अन्य अनुचर सोये निश्चिन्त 

शिथिल परियों को करते प्यार; 

रात में भी मुझ पर ही पड़ा 

द्वार-प्रहरी का दुरुतम भार । 

  

सुलाने आई गृह-गृह डोल 

नींद का सौरभ लिये बतास; 

हुए खग नीड़ों में निस्पन्द, 

नहीं तब भी मुझको अवकाश ! 

  

ऊंघती इन कलियों को सौंप 

कल्पना के मोहक सामान; 

पुन: चलना होगा क्या हाय, 

तुम्हारा सुन निष्ठुर आह्वान ? 

  

(3) 

यह कैसा आह्वान ? 

समय-असमय का तनिक न ध्यान । 

  

तुम्हारी भरी सृष्टि के बीच 

एक क्या तरल अग्नि ही पेय ? 

सुधा-मधु का अक्षय भाण्डार 

एक मेरे ही हेतु अदेय ? 

  

'उठो' सुन उठूं, हुई क्या देवि, 

नींद भी अनुचर का अपराध ? 

'मरो' सुन मरूं, नहीं क्या शेष 

अभी दो दिन जीने की साध ? 

  

विपिन के फूल-फूल में आज 

रही बासन्ती स्वयं पुकार; 

अभी भी सुनना होगा देवि ! 

दुखी धरणी का हाहाकार ? 

  

कर्म क्या एकमात्र वरदान ? 

सत्य ही क्या जीवन का श्रेय ? 

दग्ध, प्यासी अपनी लघु चाह 

मुझे ही रही नहीं क्या गेय ? 

  

मचलता है उड़ुओं को देख 

निकलने जब कोई अरमान; 

तभी उठता बज अन्तर-बीच 

तुम्हारा यह कठोर आह्वान । 

(4) 

यह कैसा आह्वान ! 

समय-असमय का तनिक न ध्यान । 

  

चांदनी में छिप किस की ओट 

पुष्पधन्वा ने छोड़े तीर ? 

बोलने लगी कोकिला मौन, 

खोलने लगी हृदय की पीर ? 

  

लताएँ ले द्रुम का अवलम्ब 

सजाने लगीं नया श्रृंगार; 

प्रियक-तरु के पुलकित सब अंग 

प्रिया का पाकर मधुमय भार । 

  

नहीं यौवन का श्लथ आवेग 

स्वयं वसुधा भी सकी संभाल; 

शिरायों का कम्पन ले दिया 

सिहरती हरियाली पर डाल । 

  

आज वृन्तों पर बैठे फूल 

पहन नूतन, कर्बुर परिधान; 

विपिन से लेकर सौरभ-मार 

चला उड़, व्योम-ओर पवमान । 

  

किया किस ने यह मधुर स्पर्श 

विश्व के बदल गये व्यापार । 

करेगी उतर व्योम से आज 

कल्पना क्या भू पर अभिसार ? 

  

नील कुसुमों के वारिद-बीच 

हरे पट का अवगुष्ठन डाल; 

स्वामिनी ! यह देखो, है खड़ी 

पूर्व-परिचित-सी कोई बाल ! 

  

उमड़ता सुषमायों को देख 

आज मेरे दृग में क्यों नीर ? 

लगा किसका शर सहसा आन ? 

जगी अंतर में क्यों यह पीर ? 

  

न जाने, किस ने छूकर मर्म ? 

जगा दी छवि-दर्शन की चाह; 

न जाने चली स्वयं को छोड़ 

खोजने किस को सुरभित आह ? 

  

अचानक कौन गया कर क्षुब्ध 

न जाने, उर का सिन्धु अथाह ? 

जगा किस का यह मादक रोष 

रोकने मुझ अजेय की राह ? 

  

न लूंगा आज रजत का शंख, 

न गाऊँगा पौरुष का राग, 

स्वामिनी ! जलने दो उर-बीच 

एक पल तो यह मीठी आग । 

  

तपा लेने दो जी-भर आज 

वेदना में प्राणों के गान; 

कनक-सा तपकर पीड़ा-बीच 

सफल होगा मेरा बलिदान । 

  

चन्द्र-किरणों ने खोले आज; 

रुद्ध मेरी आहों के द्वार; 

मनाने आ बैठा एकान्त 

मधुरता का नूतन त्योहार । 

  

शिथिल दृग में तन्द्रा का भार, 

हृदय पें छवि का मादक ध्यान; 

वेदना का सम्मुख मधु पर्व, 

और तब भी दारुण आह्वान ! 

  

(5) 

यह कैसा आह्वान ! 

समय-असमय का तनिक न ध्यान । 

  

चांदनी की अलकों में गूँथ 

छोड़ दूँ क्या अपने अरमान ? 

आह ! कर दूँ कलियों में बन्द 

मधुर पीड़ाओं का वरदान ? 

  

देवि, कितना कटु सेवा-धर्म ! 

न अनुचर को निज पर अधिकार 

न छिपकर भी कर पाता हाय ! 

तड़पते अरमानों को प्यार । 

  

हँसो, हिल-डुल वृंतों के दीप ! 

हँसो, अम्बर के रत्न अनन्त ! 

हँसो, हिलमिलकर लता-कदम्ब ! 

तुम्हें, मंगलमय मधुर वसंत ! 

  

चीरकर मध्य निशा की शान्ति 

कोकिले, छेड़ो पंचम तान; 

पल्लवों में तुम से भी मधुर 

सुला जाता हूं अपने गान । 

  

भिगोएगी वन के सब अंग 

रोर कर जब अब की बरसात, 

बजेगा इन्हीं पल्लवों-बीच 

विरह मेरा तब सारी रात । 

  

फेंकता हूं, लो तोड़-मरोड़ 

अरी निष्ठुरे ! बीन के तार, 

उठा चांदी की उज्जवल शंख 

फूंकता हूं भैरव-हुंकार । 

  

नहीं जीते-जी सकता देख 

विश्व में झुका तुम्हारा भाल; 

वेदना-मधु का भी कर पान 

आज उगलूंगा गरल कराल । 

  

सोख लूँ बनकर जिसे अगसत्य 

कहाँ बाधक वह सिन्धु अथाह ? 

कहो, खांडव-वन वह किस ओर 

आज करना है जिसका दाह ? 

  

फोड़ पैठूं अनंत पाताल ? 

लूट लाऊं वासव का देश ? 

चरण पर रख दूँ तीनों लोक ? 

स्वामिनी ! करो शीघ्र आदेश । 

  

किधर होगा अम्बर में दृश्य 

देवता का रथ अब की बार ? 

श्रृंग पर चढ़कर जिस के हेतु 

करूं नव स्वागतं-मंत्रोच्चार ? 

  

चाहती हो बुझना यदि आज 

होम की शिखा बिना सामान ? 

अभय दो, कूद पड़ूं जय बोल, 

पूर्ण कर लूं अपना बलिदान । 

  

उगे जिस दिन प्राची की ओर 

तुम्हारी जय का स्वर्ण विहान, 

उगे अंकित नभ पर यह मंत्र, 

'स्वामिनी का असमय आह्वान ।' 

  

  

  

   

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रचनाएँ
हुंकार
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रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।
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सिपाही

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शब्द-वेध

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बसन्त के नाम पर

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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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असमय आह्वान

16 फरवरी 2022
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 (1)  समय-असमय का तनिक न ध्यान,  मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?     पहन मुक्ता के युग अवतंस,  रत्न-गुंफित खोले कच-जाल  बजाती मघुर चरण-मंजीर,  आ गयी नभ में रजनी-बाल ।     झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

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