(1)
समय-असमय का तनिक न ध्यान,
मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?
पहन मुक्ता के युग अवतंस,
रत्न-गुंफित खोले कच-जाल
बजाती मघुर चरण-मंजीर,
आ गयी नभ में रजनी-बाल ।
झींगुरों में सुन शिंजन-नाद
मिलन-आकुलता से द्युतिमान,
भेद प्राची का कज्जल-भाल,
बढ़ा ऊपर विधु वेपथुमान ।
गया दिन धूलि-धूम के बीच
तुम्हारा करते जय-जयकार,
देखने आया था इस सांझ,
पूर्ण विधु का मादक श्रृंगार ।
एक पल सुधा-वृष्टि के बीच
जुड़ा पाये न क्लान्त मन-प्राण,
कि सहसा गूंज उठा सब ओर
तुम्हारा चिर-परिचित आह्वान ।
(2)
यह कैसा आह्वान !
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।
झुकी जातीं पल्कें निस्पन्द
दिवस के श्रम का लेकर भार,
रहे दृग में क्रम-क्रम से खेल
नये, भोले, लघु स्वप्न-सुकुमार ।
रक्त-कर्दम में दिन-भर फूंक
रजत-श्रृंगी से भैरव-नाद,
अभी लगता है कितना मधुर
चाँदनी का सुनना संवाद !
दग्ध करती दिन-भर सब अंग
तुम्हारे मरु की जलती धूल;
निशा में ही खिल पाते देवि !
कल्पना के उन्मादक-फूल ।
अन्य अनुचर सोये निश्चिन्त
शिथिल परियों को करते प्यार;
रात में भी मुझ पर ही पड़ा
द्वार-प्रहरी का दुरुतम भार ।
सुलाने आई गृह-गृह डोल
नींद का सौरभ लिये बतास;
हुए खग नीड़ों में निस्पन्द,
नहीं तब भी मुझको अवकाश !
ऊंघती इन कलियों को सौंप
कल्पना के मोहक सामान;
पुन: चलना होगा क्या हाय,
तुम्हारा सुन निष्ठुर आह्वान ?
(3)
यह कैसा आह्वान ?
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।
तुम्हारी भरी सृष्टि के बीच
एक क्या तरल अग्नि ही पेय ?
सुधा-मधु का अक्षय भाण्डार
एक मेरे ही हेतु अदेय ?
'उठो' सुन उठूं, हुई क्या देवि,
नींद भी अनुचर का अपराध ?
'मरो' सुन मरूं, नहीं क्या शेष
अभी दो दिन जीने की साध ?
विपिन के फूल-फूल में आज
रही बासन्ती स्वयं पुकार;
अभी भी सुनना होगा देवि !
दुखी धरणी का हाहाकार ?
कर्म क्या एकमात्र वरदान ?
सत्य ही क्या जीवन का श्रेय ?
दग्ध, प्यासी अपनी लघु चाह
मुझे ही रही नहीं क्या गेय ?
मचलता है उड़ुओं को देख
निकलने जब कोई अरमान;
तभी उठता बज अन्तर-बीच
तुम्हारा यह कठोर आह्वान ।
(4)
यह कैसा आह्वान !
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।
चांदनी में छिप किस की ओट
पुष्पधन्वा ने छोड़े तीर ?
बोलने लगी कोकिला मौन,
खोलने लगी हृदय की पीर ?
लताएँ ले द्रुम का अवलम्ब
सजाने लगीं नया श्रृंगार;
प्रियक-तरु के पुलकित सब अंग
प्रिया का पाकर मधुमय भार ।
नहीं यौवन का श्लथ आवेग
स्वयं वसुधा भी सकी संभाल;
शिरायों का कम्पन ले दिया
सिहरती हरियाली पर डाल ।
आज वृन्तों पर बैठे फूल
पहन नूतन, कर्बुर परिधान;
विपिन से लेकर सौरभ-मार
चला उड़, व्योम-ओर पवमान ।
किया किस ने यह मधुर स्पर्श
विश्व के बदल गये व्यापार ।
करेगी उतर व्योम से आज
कल्पना क्या भू पर अभिसार ?
नील कुसुमों के वारिद-बीच
हरे पट का अवगुष्ठन डाल;
स्वामिनी ! यह देखो, है खड़ी
पूर्व-परिचित-सी कोई बाल !
उमड़ता सुषमायों को देख
आज मेरे दृग में क्यों नीर ?
लगा किसका शर सहसा आन ?
जगी अंतर में क्यों यह पीर ?
न जाने, किस ने छूकर मर्म ?
जगा दी छवि-दर्शन की चाह;
न जाने चली स्वयं को छोड़
खोजने किस को सुरभित आह ?
अचानक कौन गया कर क्षुब्ध
न जाने, उर का सिन्धु अथाह ?
जगा किस का यह मादक रोष
रोकने मुझ अजेय की राह ?
न लूंगा आज रजत का शंख,
न गाऊँगा पौरुष का राग,
स्वामिनी ! जलने दो उर-बीच
एक पल तो यह मीठी आग ।
तपा लेने दो जी-भर आज
वेदना में प्राणों के गान;
कनक-सा तपकर पीड़ा-बीच
सफल होगा मेरा बलिदान ।
चन्द्र-किरणों ने खोले आज;
रुद्ध मेरी आहों के द्वार;
मनाने आ बैठा एकान्त
मधुरता का नूतन त्योहार ।
शिथिल दृग में तन्द्रा का भार,
हृदय पें छवि का मादक ध्यान;
वेदना का सम्मुख मधु पर्व,
और तब भी दारुण आह्वान !
(5)
यह कैसा आह्वान !
समय-असमय का तनिक न ध्यान ।
चांदनी की अलकों में गूँथ
छोड़ दूँ क्या अपने अरमान ?
आह ! कर दूँ कलियों में बन्द
मधुर पीड़ाओं का वरदान ?
देवि, कितना कटु सेवा-धर्म !
न अनुचर को निज पर अधिकार
न छिपकर भी कर पाता हाय !
तड़पते अरमानों को प्यार ।
हँसो, हिल-डुल वृंतों के दीप !
हँसो, अम्बर के रत्न अनन्त !
हँसो, हिलमिलकर लता-कदम्ब !
तुम्हें, मंगलमय मधुर वसंत !
चीरकर मध्य निशा की शान्ति
कोकिले, छेड़ो पंचम तान;
पल्लवों में तुम से भी मधुर
सुला जाता हूं अपने गान ।
भिगोएगी वन के सब अंग
रोर कर जब अब की बरसात,
बजेगा इन्हीं पल्लवों-बीच
विरह मेरा तब सारी रात ।
फेंकता हूं, लो तोड़-मरोड़
अरी निष्ठुरे ! बीन के तार,
उठा चांदी की उज्जवल शंख
फूंकता हूं भैरव-हुंकार ।
नहीं जीते-जी सकता देख
विश्व में झुका तुम्हारा भाल;
वेदना-मधु का भी कर पान
आज उगलूंगा गरल कराल ।
सोख लूँ बनकर जिसे अगसत्य
कहाँ बाधक वह सिन्धु अथाह ?
कहो, खांडव-वन वह किस ओर
आज करना है जिसका दाह ?
फोड़ पैठूं अनंत पाताल ?
लूट लाऊं वासव का देश ?
चरण पर रख दूँ तीनों लोक ?
स्वामिनी ! करो शीघ्र आदेश ।
किधर होगा अम्बर में दृश्य
देवता का रथ अब की बार ?
श्रृंग पर चढ़कर जिस के हेतु
करूं नव स्वागतं-मंत्रोच्चार ?
चाहती हो बुझना यदि आज
होम की शिखा बिना सामान ?
अभय दो, कूद पड़ूं जय बोल,
पूर्ण कर लूं अपना बलिदान ।
उगे जिस दिन प्राची की ओर
तुम्हारी जय का स्वर्ण विहान,
उगे अंकित नभ पर यह मंत्र,
'स्वामिनी का असमय आह्वान ।'