ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,
मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।
रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,
किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।
मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा से,
केसर मेंरे बलते हैं कनक-शिखा से ।
ज्योतिर्मयि अन्त:शिखा अरुण है मेरी,
हैं भाव अरुण, कल्पना अरुण है मेरी ।
पाया निसर्ग ने मुझे पुण्य के फल-सा,
तम के सिर पर निकला मैं कनक-कमल-सा ।
हो उठा दीप्त धरती का कोना-कोना,
जिसको मैने छू दिया हुआ वह सोना ।
रंग गयी घास पर की शबनम की प्याली,
हो गयी लाल कुहरे की झीनी जाली ।
मेरे दृग का आलोक अरुण जब छलका,
बन गयी घटाएँ विम्ब उषा-अंचल का ।
उदयाचल पर आलोक-शरासन ताने
आया मैं उज्जवल गीत विभा के गाने ।
ज्योंतिर्धनु की शिंजिनी बजा गाता हूँ,
टंकार-लहर अम्बर में फैलाता हूँ ।
किरणों के मुख में विभा बोलती मेरी,
लोहिनी कल्पना उषा खोलती मेरी ।
मैं विभा-पुत्र, जागरण गान है मेरा,
जग को अक्षय आलोक दान है मेरा ।
कोदण्ड-कोटि पर स्वर्ग लिये चलता हूँ,
कर-गत दुर्तभ अपवर्ग किये चलता हूँ ।
आलोक-विशिख से वेध जगा जन-जन को,
सजता हूँ नूतन शिखा जला जीवन को ।
जड़ को उड़ने की पाँख दिये देता हूँ,
चेतन के मन को आँख दिये देता हूँ ।
दौड़ा देता हूँ तरल अग्नि नस-नस में,
रहने देता बल को न बुद्धि के बस में ।
स्वर को कराल हुंकार बना देता हूँ,
यौवन को भीषण ज्वार बना देता हूँ ।
शुरों के दृग अंगार बना देता हूँ,
हिम्मत को ही तलवार बना देता हूँ ।
लोहू में देता हूँ वह तेज रवानी,
जूझती पहाडों से हो अभय जवानी ।
मस्तक में भर अभिमान दिया करता हूँ,
पतनोन्मुख को उत्थान दिया करता हूँ ।
म्रियमाण जाति को प्राण दिया करता हूँ,
पीयूष प्रभा-मय गान दिया करता हूँ,
जो कुछ ज्वलन्त हैं भाव छिपे नर-नर में,
है छिपी विभा उनकी मेरे खर शर में ।
किरणें आती है समय-वक्ष से कढ़ के,
जाती हैं अपनी राह धनुष पर चढ़ के ।
हूँ जगा रहा आलोक अरुण बाणों से,
मरघट में जीवन फूँक रहा गानों से ।
मैं विभा-पुत्र, जागरण गान है मेरा,
जग को अक्षय आलोक दान है मेरा ।
(१९४० ई०)