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तकदीर का बँटवारा

16 फरवरी 2022

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 है बँधी तकदीर जलती डार से, 

आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ? 

वेदना मन की सही जाती नहीं, 

यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ? 

  

पापिनी कह जीभ काटी जायगी 

आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ, 

हड्डियाँ जल जायेंगी, मन मार कर 

जीभ थामें मौन भी कैसे रहूँ ? 

  

तान कर भौहें, कड़कना छोड़ कर 

मेघ बर्फों-सा पिघल सकता नहीं, 

शौक हो जिनको, जलें वे प्रेम से, 

मैं कभी चुपचाप जल सकता नहीं । 

  

बाँसुरी जनमी तुम्हारी गोद में 

देश-माँ, रोने-रुलाने के लिए, 

दौड़ कर आगे समय की माँग पर 

जीभ क्या, गरदन कटने के लिए । 

  

जिन्दगी दौड़ी नयी संसार में 

खून में सब के रवानी और है; 

और हैं लेकिन हमारी किस्मतें, 

आज भी अपनी कहानी और है । 

  

हाथ की जिसकी कड़ी टूटी नहीं 

पाँव में जिसके अभी जंजीर है; 

बाँटने को हाय ! तौली जा रही, 

बेहया उस कौम की तकदीर है ! 

  

बेबसी में काँप कर रोया हृदय, 

शाप-सी आहें गरम आयीं मुझे; 

माफ करना, जन्म ले कर गोद में 

हिन्द की मिट्टी ! शरम आयी मुझे ! 

  

गुदड़ियों में एक मुटूठी हड्डियाँ, 

मौत-सी, गम की मलीन लकीर-सी, 

कौम की तकदीर हैरत से भरी 

देखती टूक-टूक खडी तस्वीर-सी । 

  

चीथडों पर एक की आँखें लगीं, 

एक कहता है कि मैं लूँगा जबाँ; 

एक की ॰जिद है कि पीने दो मुझे 

खून जो इसकी रगों में है रवां ! 

  

खून ! खूं की प्यास, तो जाकर पियो 

जालिमो ! अपने हृदय का खून ही; 

मर चुकी तकदीर हिन्दुस्तान की, 

शेष इसमें एक बूंद लहू नहीं । 

  

मुस्लिमों ! तुम चाहते जिसकी ज़बाँ, 

उस गरीबिन ने ज़बाँ खोली कभी ? 

हिंदुओ ! बोलो तुम्हारी याद में 

कौम की तकदीर क्या बोली कभी ? 

  

छेड़ता आया जमाना, पर कभी 

कौम ने मुंह खोलना सीखा नहीं । 

जल गयी दुनिया हमारे सामने, 

किन्तु, हमने बोलना सीखा नहीं । 

  

ताव थी किसकी कि बाँधे कौम को 

एक होकर हम कहीं मुंह खोलते ? 

बोलना आता कहीं तकदीर को, 

हिंदवाले आसमाँ पर बोलते । 

  

खूं बहाया जा रहा इन्सान का 

सींगवाले जानवर के प्यार में ! 

कौम की तकदीर फोड़ी जा रही 

मस्जिदों की ईंट की दीवार में । 

  

सूझता आगे न कोई पन्थ है, 

है घनी गफलत-घटा छायी हुई, 

नौजवानो कौम के ! तुम हो कहाँ ? 

नाश की देखो घड़ी आयी हुई । 

  

(कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच 

समझौता-वार्ता के असफल होने पर रचित 

१९३८ ई०)  

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रचनाएँ
हुंकार
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रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।
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हुंकार

16 फरवरी 2022
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हाहाकार

16 फरवरी 2022
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दिव की ज्वलित शिखा सी उड़ तुम जब से लिपट गयी जीवन में,  तृषावंत मैं घूम रहा कविते ! तब से व्याकुल त्रिभुवन में !    उर में दाह, कंठ में ज्वाला, सम्मुख यह प्रभु का मरुथल है,  जहाँ पथिक जल की झांकी म

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वर्त्तमान का निमन्त्रण

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दिगम्बरी

16 फरवरी 2022
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 उदय-गिरी पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला,  दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।     (१) तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,  खड़े हैं मुन्तजिर कब से नए अभियानवाले !     प्रतीक्षा है, सु

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विपथगा

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 झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,  झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन,     मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में  अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !  मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों

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अनल-किरीट

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कविता का हठ

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 "बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ?  कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री-हीन हुआ ?  संध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन-आलोक मलीन हुआ ?  किस छाया में छिपी विभा ? श्रृंगार किधर उड्

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फूलों के पूर्व जन्म

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प्रिय की पृथुल जांघ पर लेटी करती थीं जो रंगरलियाँ,  उनकी कब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ।     पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली,  वे भौरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली। 

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शहीद-स्तवन (कलम, आज उनकी जय बोल)

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 (उनके लिए जो जा चुके हैं)  कलम, आज उनकी जय बोल     जला अस्थियाँ बारी-बारी  छिटकाई जिनने चिंगारी,  जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।  कलम, आज उनकी जय बोल ।     जो अगणित लघु दीप

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आलोकधन्वा

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ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,  मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।  रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,  किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।     मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा स

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सिपाही

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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,  ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ ।  जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,  सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना ।    

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खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?  ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?     लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?  ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ? 

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मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी

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 सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !  बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।     हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,  मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।    

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तकदीर का बँटवारा

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 है बँधी तकदीर जलती डार से,  आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ?  वेदना मन की सही जाती नहीं,  यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ?     पापिनी कह जीभ काटी जायगी  आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,  हड्डियाँ जल जायें

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बसन्त के नाम पर

16 फरवरी 2022
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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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हिमालय

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असमय आह्वान

16 फरवरी 2022
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 (1)  समय-असमय का तनिक न ध्यान,  मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?     पहन मुक्ता के युग अवतंस,  रत्न-गुंफित खोले कच-जाल  बजाती मघुर चरण-मंजीर,  आ गयी नभ में रजनी-बाल ।     झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

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