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दिल्ली

16 फरवरी 2022

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यह कैसे चांदनी अमा के मलिन तमिस्त्र गगन में ! 

कूक रही क्यों नियति व्यंग्य से इस गोधुली-लगन में ? 

मरघट में तू साज रही दिल्ली ! कैसे श्रृंगार ? 

यह बहार का स्वांग अरि, इस उजड़े हुए चमन में ! 

  

इस उजाड़, निर्जन खंडहर में, 

छिन-भिन्न उजड़े इस घर में, 

तुझे रूप सजने की सूझी 

मेरे सत्यानाश प्रहर में ! 

  

डाल-डाल पर छेड़ रही कोयल मर्सिया तराना 

और तुझे सूझा इस दम ही उत्सव हाय, मनाना; 

हम धोते हैं गाव इधर सतलज के शीतल जल से, 

उधर तुझे भाता है इनपर नमक हाय, छिडकाना ? 

  

महल कहाँ ? बस, हमें सहारा 

केवल फूस-फांस, तृणदल का; 

अन्न नहीं, अवलंब प्राण को 

गम, आंसू या गंगाजल का; 

  

यह विहगों का झुण्ड लक्ष्य है 

आजीवन बधिकों के फल का, 

मरने पर भी हमें कफ़न है 

माता शैव्या के अंचल का ! 

  

गुलचीं निष्ठुर फेंक रहा कलियों को तोड़ अनल में, 

कुछ सागर के पार और कुछ रावी-सतलज-जल में; 

हम मिटते जा रहे, न ज्यों, अपना कोई भगवान् ! 

यह अलका छवि कौन भला देखेगा इस हलचल में ? 

  

बिखरी लट, आंसू छलके हैं, 

देख, वन्दिनी है बिलखाती, 

अश्रु पोंछने हम जाते हैं, 

दिल्ली ! आह ! कलम रुक जाती। 

  

अरि विवश हैं, कहो, करें क्या ? 

पैरों में जंजीर हाय, हाथों- 

में हैं कड़ियाँ कस जातीं ! 

  

और कहें क्या ? धरा न धंसती, 

हुन्करता न गगन संघाती ! 

हाय ! वन्दिनी मां के सम्मुख 

सुत की निष्ठुर बलि चढ़ जाती ! 

  

तड़प-तड़प हम कहो करें क्या ? 

'बहै न हाथ, दहै रिसि छाती', 

अंतर ही अंतर घुलते हैं, 

'भा कुठार कुंठित रिपु-घाती !' 

  

अपनी गर्दन रेत-रेत असी की तीखी धारों पर 

राजहंस बलिदान चढाते माँ के हुंकारों पर। 

पगली ! देख, जरा कैसे मर-मिटने की तैयारी ? 

जादू चलेगा न धुन के पक्के इन बंजारों पर। 

  

तू वैभव-मद में इठलाती 

परकीया-सी सैन चलाती, 

री ब्रिटेन की दासी ! किसको 

इन आँखों पर है ललचाती ? 

  

हमने देखा यहीं पांडू-वीरों का कीर्ति-प्रसार, 

वैभव का सुख-स्वप्न, कला का महा-स्वप्न-अभिसार, 

यही कभी अपनी रानी थी, तू ऐसे मत भूल, 

अकबर, शाहजहाँ ने जिसका किया स्वयं श्रृंगार। 

  

तू न ऐंठ मदमाती दिल्ली ! 

मत फिर यों इतराती दिल्ली ! 

अविदित नहीं हमें तेरी 

कितनी कठोर है छाती दिल्ली ! 

  

हाय ! छिनी भूखों की रोटी 

छिना नग्न का अर्द्ध वसन है, 

मजदूरों के कौर छिने हैं 

जिन पर उनका लगा दसन है । 

  

छिनी सजी-साजी वह दिल्ली 

अरी ! बहादुरशाह 'जफर' की ; 

और छिनी गद्दी लखनउ की 

वाजिद अली शाह 'अख्तर' की । 

  

छिना मुकुट प्यारे 'सिराज' का, 

छिना अरी, आलोक नयन का, 

नीड़ छिना, बुलबुल फिरती है 

वन-वन लिये चंचु में तिनका। 

  

आहें उठीं दीन कृषकों की, 

मजदूरों की तड़प, पुकारें, 

अरी! गरीबों के लोहू पर 

खड़ी हुई तेरी दीवारें । 

  

अंकित है कृषकों के दृग में तेरी निठुर निशानी, 

दुखियों की कुटिया रो-रो कहती तेरी मनमानी । 

औ' तेरा दृग-मद यह क्या है ? क्या न खून बेकस का ? 

बोल, बोल क्यों लजा रही ओ कृषक-मेध की रानी ? 

  

वैभव की दीवानी दिल्ली ! 

कृषक-मेध की रानी दिल्ली ! 

अनाचार, अपमान, व्यंग्य की 

चुभती हुई कहानी दिल्ली ! 

  

अपने ही पति की समाधि पर 

कुलटे ! तू छवि में इतराती ! 

परदेसी-संग गलबाँही दे 

मन में है फूली न समाती ! 

  

दो दिन ही के 'बाल-डांस' में 

नाच हुई बेपानी दिल्ली ! 

कैसी यह निर्लज्ज नग्नता, 

यह कैसी नादानी दिल्ली ! 

  

अरी हया कर, है जईफ यह खड़ा कुतुब मीनार, 

इबरत की माँ जामा भी है यहीं अरी ! हुशियार । 

इन्हें देखकर भी तो दिल्ली ! आँखें, हाय, फिरा ले, 

गौरव के गुरु रो न पड़े, हा, घूंघट जरा गिरा ले ! 

  

अरी हया कर, हया अभागी ! 

मत फिर लज्जा को ठुकराती; 

चीख न पड़ें कब्र में अपनी, 

फट न जाय अकबर की छाती । 

  

हुक न उठे कहीं 'दारा' की 

कूक न उठे कब्र मदमाती ! 

गौरव के गुरु रो न पड़ें, हा, 

दिल्ली घूंघट क्यों न गिराती ? 

  

बाबर है, औरंग यहीं है 

मदिरा औ' कुलटा का द्रोही, 

बक्सर पर मत भूल, यहीं है 

विजयी शेरशाह निर्मोही । 

  

अरी ! सँभल, यह कब्र न फट कर कहीं बना दे द्वार ! 

निकल न पड़े क्रोध में ले कर शेरशाह तलवार ! 

समझायेगा कौन उसे फिर ? अरी, सँभल नादान ! 

इस घूंघट पर आज कहीं मच जाय न फिर संहार ! 

  

जरा गिरा ले घूंघट अपना, 

और याद कर वह सुख सपना, 

नूरजहाँ की प्रेम-व्यथा में 

दीवाने सलीम का तपना; 

  

गुम्बद पर प्रेमिका कुपोती 

के पीछे कपोत का उड़ना, 

जीवन की आनन्द-घडी में 

जन्नत की परियों का जुड़ना । 

  

जरा याद कर, यहीं नहाती--- 

थी रानी मुमताज अतर में, 

तुझ-सी तो सुन्दरी खड़ी--- 

रहती थी पैमाना ले कर में । 

  

सुख, सौरभ, आनन्द बिछे थे 

गली, कूच, वन, वीथि, नगर में, 

कहती जिसे इन्द्रपुर तू वह- 

तो था प्राप्य यहाँ घर-घर में । 

  

आज आँख तेरी बिजली से कौध-कौध जाती है ! 

हमें याद उस स्नेह-दीप की बार-बार आती है ! 

  

खिलें फूल, पर, मोह न सकती 

हमें अपरिचित छटा निराली, 

इन आँखों में घूम रही 

अब भी मुरझे गुलाब की लाली । 

  

उठा कसक दिल में लहराता है यमुना का पानी, 

पलकें जोग रहीं बीते वैभव की एक निशानी, 

दिल्ली ! तेरे रूप-रंग पर कैसे ह्रदय फंसेगा ? 

बाट जोहती खंडहर में हम कंगालों की रानी। 

   

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रचनाएँ
हुंकार
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रामधारी सिंह दिनकर स्वभाव से सौम्य और मृदुभाषी थे, लेकिन जब बात देश के हित-अहित की आती थी तो वह बेबाक टिप्पणी करने से कतराते नहीं थे। रामधारी सिंह दिनकर ने ये तीन पंक्तियां पंडित जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ संसद में सुनाई थी, जिससे देश में भूचाल मच गया था। दिलचस्प बात यह है कि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव पंडित नेहरु ने ही किया था, इसके बावजूद नेहरू की नीतियों की मुखालफत करने से वे नहीं चूके।
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हुंकार

16 फरवरी 2022
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हाहाकार

16 फरवरी 2022
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वर्त्तमान का निमन्त्रण

16 फरवरी 2022
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दिगम्बरी

16 फरवरी 2022
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 उदय-गिरी पर पिनाकी का कहीं टंकार बोला,  दिगम्बरी ! बोल, अम्बर में किरण का तार बोला।     (१) तिमिर के भाल पर चढ़ कर विभा के बाणवाले,  खड़े हैं मुन्तजिर कब से नए अभियानवाले !     प्रतीक्षा है, सु

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विपथगा

16 फरवरी 2022
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अनल-किरीट

16 फरवरी 2022
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 लेना अनल-किरीट भाल पर ओ आशिक होनेवाले !  कालकूट पहले पी लेना, सुधा बीज बोनेवाले !     १  धरकर चरण विजित श्रृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं,  अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुडाते हैं।     पड़ी स

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कविता का हठ

16 फरवरी 2022
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 "बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ?  कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री-हीन हुआ ?  संध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन-आलोक मलीन हुआ ?  किस छाया में छिपी विभा ? श्रृंगार किधर उड्

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फूलों के पूर्व जन्म

16 फरवरी 2022
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प्रिय की पृथुल जांघ पर लेटी करती थीं जो रंगरलियाँ,  उनकी कब्रों पर खिलती हैं नन्हीं जूही की कलियाँ।     पी न सका कोई जिनके नव अधरों की मधुमय प्याली,  वे भौरों से रूठ झूमतीं बन कर चम्पा की डाली। 

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दिल्ली

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शहीद-स्तवन (कलम, आज उनकी जय बोल)

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 (उनके लिए जो जा चुके हैं)  कलम, आज उनकी जय बोल     जला अस्थियाँ बारी-बारी  छिटकाई जिनने चिंगारी,  जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल ।  कलम, आज उनकी जय बोल ।     जो अगणित लघु दीप

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आलोकधन्वा

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ज्योतिर्धर कवि मैं ज्वलित सौर-मण्डल का,  मेरा शिखण्ड अरुणाभ, किरीट अनल का ।  रथ में प्रकाश के अश्व जुते हैं मेरे,  किरणों में उज्जल गीत गूँथे हैं मेरे ।     मैं उदय-प्रान्त का सिह प्रदीप्त विभा स

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सिपाही

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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,  ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ ।  जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैंने पहचाना,  सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना ।    

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शब्द-वेध

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खेल रहे हिलमिल घाटी में, कौन शिखर का ध्यान करे ?  ऐसा बीर कहाँ कि शैलरुह फूलों का मधुपान करे ?     लक्ष्यवेध है कठिन, अमा का सूचि-भेद्य तमतोम यहाँ?  ध्वनि पर छोडे तीर, कौन यह शब्द-वेध संधान करे ? 

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मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी

16 फरवरी 2022
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 सावधान हों निखिल दिशाएँ, सजग व्योमवासी सुरगन !  बहने चले आज खुल-खुल कर लंका के उनचास पवन ।     हे अशेषफण शेष ! सजग हो, थामो धरा, धरो भूधर,  मेघ-रन्ध्र में बजी रागिनी, टूट न पड़े कहीं अम्बर ।    

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तकदीर का बँटवारा

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 है बँधी तकदीर जलती डार से,  आशियाँ को छोड़ उड़ जाऊँ कहाँ ?  वेदना मन की सही जाती नहीं,  यह जहर लेकिन उगल आऊँ कहाँ ?     पापिनी कह जीभ काटी जायगी  आँख देखी बात जो मुँह से कहूँ,  हड्डियाँ जल जायें

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बसन्त के नाम पर

16 फरवरी 2022
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 १.  प्रात जगाता शिशु-वसन्त को नव गुलाब दे-दे ताली।  तितली बनी देव की कविता वन-वन उड़ती मतवाली।     सुन्दरता को जगी देखकर,  जी करता मैं भी कुछ गाऊॅं;  मैं भी आज प्रकृति-पूजन में,  निज कविता के

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हिमालय

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 मेरे नगपति! मेरे विशाल!     साकार, दिव्य, गौरव विराट्,  पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!  मेरी जननी के हिम-किरीट!  मेरे भारत के दिव्य भाल!  मेरे नगपति! मेरे विशाल!     युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,

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असमय आह्वान

16 फरवरी 2022
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 (1)  समय-असमय का तनिक न ध्यान,  मोहिनी, यह कैसा आह्वान ?     पहन मुक्ता के युग अवतंस,  रत्न-गुंफित खोले कच-जाल  बजाती मघुर चरण-मंजीर,  आ गयी नभ में रजनी-बाल ।     झींगुरों में सुन शिंजन-नाद 

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