हम जाने-अनजाने उस न्यायकारी ईश्वर के न्याय में दखलअंदाजी करते हैं जो किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। हो सकता है आप मेरी बात से असहमत हों परन्तु यदि मेरे विचारों को पढ़कर तर्क की कसौटी पर कसेंगे तो मानेंगे कि मैं सर्वथा सत्य कह रही हूँ।
संसार में रहते हुए हमें यदा-कदा लोगों के कटाक्ष अथवा उनके द्वारा किए गए अपमान का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त किसी दूसरे के कारण हमें कभी-कभी हानि उठानी पड़ती है अथवा न चाहते हुए अनावश्यक झगड़े में फंस जाना पड़ता है। उस समय हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- "हे ईश्वर! मेरा दिल दुखाने वाले उस मनुष्य को कभी न छोड़ना, उसे माफ भी न करना। उसे कड़ी-से-कड़ी सजा देना ताकि उसे सबक(lesson) मिल जाए। वह फिर मेरा अहित करने की हिम्मत न करे।"
अब बताइए कि वह मालिक जब सब कुछ जानता है तो हम कौन होते हैं उसे न्याय करना सिखाने वाले? क्या हमने कभी उससे अपने तथाकथित शत्रु को क्षमा करने करने के लिए प्रार्थना करते हुए कहा है- "हे प्रभु! फलाँ व्यक्ति ने अपराध तो किया है पर अज्ञानतावश। उसे क्षमा कर देना और उसे मेरे कारण कष्ट न देना।" यदि हम ऐसा करें तो उस न्यायप्रिय प्रभु को शायद अच्छा लगेगा कि हम दूसरों को क्षमा कर सकते हैं।
ईश्वर के लिए सभी जीव एक समान हैं। उसकी नजर से कोई बच नहीं सकता। हमारे प्रति अपराध करने वाला हो सकता है दोषी ही न हो बल्कि दोष हमारा ही हो। ऐसा भी हो सकता है कि हमने उसके प्रति कभी कुछ गलत किया होगा जिसका परिणाम हमें अब भुगतना पड़ रहा हो। हाँ ऐसा भी हो सकता है कि वास्तव में वही दोषी हो।
दोनों स्थितियों में दोषी और निर्दोष होने का न्याय हम नहीं कर सकते। अत: इस समस्या को उसी मालिक पर ही छोड़ देना चाहिए।
वह स्वयं इसका न्याय कर लेगा। हम उसकी तरह हर जीव के मन के भावों को न पढ़ सकते हैं और न ही जान सकते हैं। इसलिए सारी व्यवस्थाएँ वही संभालता है। यदि वह हमारे ऊपर सब छोड़ दे तो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के मुँह में जाता हुआ निवाला भी छीनकर खा जाएगा। इस प्रकार दुनिया में अव्यवस्था फैल जाएगी। चारों ओर हाहाकार मच जाएगा और लोग त्राहि-त्राहि कर उठेंगे। शातिर व दुराचारी लोगों का बोलबाला हो जाएगा। तब आम आदमी का जीना दुश्वार हो जाएगा।
हम अपने आसपास बहुधा देखते हैं कि कुछ व्यक्ति विशेष ऐसे होते हैं जिनका अहित करने वालों का कभी अच्छा नहीं होता, अपने किए गए दुष्कर्म का फल उन्हें निश्चित मिलता है। और कुछ लोगों के साथ बुरा करने वालों का बाल भी बांका नहीं होता। कारण वही है कि प्रथम श्रेणी के लोग मन से सहज, सरल व शुभचिन्तक होते हैं, वे किसी का अहित नहीं करते। दूसरी श्रेणी के लोग दिखावा अधिक करते हैं परन्तु मन से दूसरों का हित चिन्तन नहीं करते।
हमारे पूर्वजन्मकृत कर्मों के ही आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ जज बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी के दबाव में आए हमारे लिए निष्पक्ष न्याय करता है। उसी की कड़ी है कि हमें किसी व्यक्ति विशेष से सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि मिलते हैं। फिर हम उस न्यायकारी परमेश्वर से अपने प्रति किए गए किसी भी दोष के लिए उस व्यक्ति विशेष को दण्डित करने की गुहार क्यों लगाएँ? मेरे विचार में उचित नहीं है।
हमें अपने कर्मों को करते समय यह ध्यान देना चाहिए कि यथासंभव वे किसी के लिए अहितकर न हों। अपने प्रयासों में यदि हम सच्चाई व ईमानदारी को ला सकें तो ऐसे छोटे-मोटे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाएँगे। हमें उस दयालु न्यायकारी के न्याय में हस्ताक्षेप करने का दोष नहीं लगेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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