ईश्वर उनकी सहायता करता है जो स्वयं अपनी सहायता स्वयं करते हैं- यह कथन बिल्कुल सटीक और उपयोगी है।
हम स्वयं तो हाथ पर हाथ रखकर निठल्ले बैठे रहें और फिर साहब की तरह आदेश देते रहें। तब हम यह इच्छा रखते हैं कि हमारे दिए गए उन सभी आदेशों की अक्षरश: अनुपालना हो जाए। बताइए ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है? वह ईश्वर क्या हमारा नौकर है, जो दिन-रात हमारी जी हजूरी करते हुए, हमारे दिए गए सारे हुक्म पूरे करता रहेगा।
उस मालिक ने जन्म देकर मनुष्य को इस संसार में भेज दिया है। अब उसका यही कर्त्तव्य बनता है कि वह उसके दिए इस अमूल्य जीवन का सम्मान करें। उसके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलें। जो चाहिए उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से जुट जाए। हर समय ख्याली पुलाव न पकाए। कहने का यह अर्थ है कि हम सभी मनुष्य शेखचिल्ली बनकर दिवास्वप्न न देखें। अपने देखे हुए उन सपनों को साकार करने के लिए यथाशीघ्र कृतसंकल्प हो जाएँ।
जब तक मनुष्य स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, तब तक अपने वह घर-परिवार और समाज के द्वारा अयोग्य करार कर दिया जाता है। ऐसा व्यक्ति दुनिया की नजर में शून्य की तरह होता है। जो व्यक्ति मेहनत करने से घबराता है, जीवन की ऊँचाइयों पर पहुँचने की वह केवल कल्पना ही कर सकता है, पहुँच नहीं सकता। उसके लिए ये मुहावरे सटीक बैठते है- 'अंगूर खट्टे है' अथवा 'हाथ न पहुँचे थू कौड़ी'।
बिना मेहनत किए तो स्वयं रोटी का निवाला भी किसी के मुँह में नहीं जाता। उसके लिए भी हाथ बढ़ाकर रोटी तोड़कर मुँह में डालनी पड़ती है। चींटी से लेकर जंगल के राजा शेर तक सभी परिश्रम करते हैं, तभी अपने लिए भोजन का प्रबंध कर पाते हैं। फिर हम जैसे आम इंसानों की हस्ती क्या है?
इसी तरह मनुष्य को भी करना पड़ता है, अन्यथा दूसरों का मुँह देखते रहने पर सदा अपमानित होना पड़ता है। राजा से रंक तक सभी हाथ-पैर हिलाते हैं, तभी कुछ कर पाते हैं।
सारी सृष्टि हम मनुष्यों के लिए जुटी हुई है। कोई हमें प्रकाश व ऊष्मा देता है, कोई जल देता है, कोई हमें जीवनी शक्ति देता है। कहने का यह तात्पर्य है कि प्रकृति हमारे लिए सभी सुख-सुविधाएँ जुटाती है। अब यह हमारा दायित्व बनता है कि हम उन सबका उपयोग कैसे कर पाते हैं?
ईश्वर की तरफ से हमें हर प्रकार के जीने के साधन उपलब्ध कराए गए हैं। यदि हम स्वयं उनका सदुपयोग नहीं करते, तो वह मालिक भी हमारे लिए कुछ नहीं करेगा। एक उदाहरण देखते हैं। हम अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए भेजते हैं। उसे सभी सुविधाएँ देते हैं। उसे टयूशन के लिए भेजते हैं और जरूरत की हेल्प बुक समेत सारी पुस्तकें लेकर देते हैं। इतना सब करने के बाद भी यदि बच्चा न पढ़े या बहुत कम अंक लेकर आए, तो माता-पिता उसके लिए क्या कर सकते हैं? उसके अध्पापक भी क्या कर सकते हैं? कोई भी घोटकर तो उसे शिक्षा नहीं पिला सकता।
इसी प्रकार जब तक हम स्वयं अपनी सहायता नहीं करेंगे, तो वह परमपिता भी उस बच्चे की तरह हमारे लिए कुछ नहीं कर पाएगा। वह हमसे निराश हो जाएगा और हमारा साथ छोड़ देगा, तो हमारे लिए बहुत कठिनाई हो जाएगी। उस मालिक की सहायता की इच्छा करने वालों को स्वयं को सिद्ध करना होगा कि वे उसकी कृपा के पात्र हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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