प्रेम का रास्ता बहुत ही कष्टकर होता है। इसके साथ-साथ बहुत तग अथवा संकरा भी होता है। एक समय में इसमें से एक ही व्यक्ति गुजर सकता है, दो नहीं। इसी भाव को दोहे के इस अंश में कहा गया है-
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाए।
अर्थात् प्रेम की गली में बहुत संकरी है, उसमें इतना स्थान ही नहीं है कि उसमें से दो लोग एकसाथ समा सकें।
जब तक दो व्यक्तियों में तेरा और मेरा का भाव रहेगा तब तक प्रेम नहीं हो ही नहीं सकता। जब वे दो जिस्म और एक जान बन जाते हैं तब सही मायने में प्यार होता है। यह बहुत ही गूढ़ विषय है। जब दो लोगों में ऐसा प्यार हो जाता है तो वहाँ समर्पण की भावना होती है। वे दोनों एक-दूसरे की भावनाओं को बिन कहे और बिन सुने समझ जाते हैं। मीलों दूर बैठे हुए भी एक-दूसरे की खैर-खबर रख सकते हैं, जिसे हम टेलीपैथी कहते हैं। वह उनमें स्वत: विकसित हो जाती है।
यह सब दुधारी तलवार की धार पर चलने के समान होता है। जहाँ चूक हो गई वहाँ मनुष्य चोट खा लेता है। फिर उसे सुधारने में वर्षों व्यतीत हो जाते हैं।
प्रेम की यह गहरी परिभाषा है। जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकतीं, उसी प्रकार से दो अलग-अलग शख्सियत बनकर इस मार्ग में नहीं रहा जा सकता है। सच्चा प्रेम अपने अस्तित्व को अर्थात् स्व को मिटाकर दूसरे में एक हो जाना होता है। यह सम्बन्ध प्रतिदान नहीं माँगता बल्कि पूर्ण समर्पण भाव इसमें होता है।
प्रेम कुछ लेना नहीं जानता, वह तो बस देना ही जानता है। इसीलिए सबको अपना बना लेता है। यदि लेनदेन की या बदले की भावना यहाँ हावी गई तो फिर वह प्रेम नहीं रह जाता बल्कि व्यापार बन जाता है। इस प्रेम को विशुद्ध ही रहने दें, इसमें विष न घोलें।
पति-पत्नि का प्रेम भी सही मायने में ऐसा ही होना चाहिए। दोनों में तेरा-मेरा न होकर हमारा होना चाहिए। दोनों के सुख-दुख सब एक होने चाहिए। जब तक तन, मन और धन से वे दोनों एक नहीं होंगे उनका प्रेम अधूरा रहेगा। परस्पर का यह अधूरापन हमेशा नुकसान देता है।
दोनों में समझौता हो जाना कोई शुभ लक्षण नहीं है। जहाँ समझौता टूटा वहीं पर बिखराव होने लगता है। तब परिवार टूटने लगते हैं और आपसी सम्बन्ध दरकने लगते हैं। लम्बे समय तक दोनों को साथ निभाना होता है। इसलिए जीवन में परस्पर प्रेम और विश्वास को बनाए रखना पति-पत्नि दोनों का कर्त्तव्य है।
आज युवा पीढ़ी ने इस प्यार को एक व्यापार बना दिया है। उनके लिए इस प्यार के मायने केवल मौज-मस्ती है।प्यार के नाम पर वे उच्छृंखल बनते जा रहे हैं। जहाँ तक उनका स्वार्थ पूरा होता रहता है, बस वहीं तक प्यार होता है। उसके बाद फिर तू कौन और मैं कौन? वे इस बात को बिल्कुल भूल गए हैं कि प्यार देने और समर्पण का नाम है। इसमें स्वार्थ का कोई काम नहीं है।
एकपक्षीय प्रेम सदा ही घातक होता है। इसके चक्कर में हत्याएँ व आत्महत्याएँ भी हो जाती हैं। एसिड अटैक भी इसी का ही परिणाम है। यथासम्भव इससे बचना चाहिए और दूसरो को बचाना चाहिए।
ईश्वर से प्रेम का आधार भी पूर्ण समर्पण है। उससे लौ लगाने का अर्थ है उसमें एकाकार हो जाना। यह वही प्यार है जो मीराबाई ने दुनिया की परवाह न करके अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर भगवान कृष्ण से किया। राधा ने भी सच्चे मन से भगवान कृष्ण से नाता जोड़ा। हमारे ऋषि-मुनि इसी प्यार की बदौलत असार संसार के सारे कारोबार से स्वयं को विलग कर लेते हैं।
जब तक इस प्यार में तड़प न हो, तब तक मनुष्य इस संकरे रास्ते पर चल ही नहीं सकता। दोनों के मैं को छोड़े बिना यह पवित्र प्रेम सम्भव नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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