ज्ञान किसी की बपौती नहीं। वह जहाँ से भी मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। उस समय किसी प्रकार के शुभाशुभ फल का विचार करने नहीं बैठना चाहिए और न ही कि उपदेशक कौन है? वह शत्रु है या मित्र, साधु है या अज्ञ बालक। ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिए मनुष्य को अपने अहं का त्याग करके शिष्यत्व भाव को अपनाना चाहिए। तभी वह प्राप्त ज्ञान को आत्मसात कर सकता है। अन्यथा पहले से ही भरे हुए पात्र में कुछ भी नहीं समा सकता।
यहाँ रामायण का एक प्रसंग देना चाहती हूँ जो किसी भी भारतीय के लिए नया नहीं है। राम और रावण का युद्ध समाप्त हो चुका था। रावण मरणासन्न अवस्था में था। भगवान श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण से कहा - 'अपने समय का परम विद्वान रावण अपनी अन्तिम साँसें गिन रहा है। जाओ जाकर उससे शिक्षा ग्रहण करो।'
लक्ष्मणजी ने रावण के सिर के पास खड़े होकर तीन बार प्रार्थना की- 'मुझे नीति की शिक्षा दें।' लेकिन रावण ने एक शब्द भी नहीं कहा।
लक्ष्मण वापिस लौट आए तो श्रीराम ने पूछा - 'क्या शिक्षा लेकर आए हो?"
लक्ष्मण ने उन्हें सारी बात बताई। भगवान श्रीराम ने उन्हें समझाते हुए कहा - 'तुम रावण को शत्रु समझकर उसके पास गए थे। इसलिए तुम्हारा व्यवहार वैसा ही था। अब एक शिष्य की तरह उसके पास जाकर उससे ज्ञान देने की याचना करो।'
लक्ष्मण ने बड़े भाई की आज्ञा का पालन किया। तब रावण ने लक्ष्मण को नीति का ज्ञान दिया। पहली बात रावण ने लक्ष्मण को बताई कि शुभ कार्य जितनी जल्दी हो कर लेना चाहिए और अशुभ को जितना टाल सकते हो टाल देना चाहिए। रावण ने लक्ष्मण को कहा - ‘मैं श्रीराम को पहचान नहीं सका, उनकी शरण में आने में देर कर दी, इसीलिए मेरी यह दशा हुई।’
रावण ने दूसरी बात बताई - “अपने शत्रु को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए, वह आपसे भी अधिक बलशाली हो सकता है। मैंने श्रीराम को तुच्छ मानव समझकर सोचा कि उन्हें हराना मेरे लिए बहुत सरल होगा, लेकिन यह मेरी सबसे बड़े भूल थी।'
रावण ने फिर आगे कहा, “मैंने जिन्हें साधारण वानर और भालू समझा उन्होंने मेरी पूरी सेना को नष्ट कर दिया। मैंने जब ब्रह्माजी से अमरता का वरदान माँगा था तब मनुष्य और वानर के अतिरिक्त कोई और मेरा वध न कर सके। ऐसा क्योंकि मैं मनुष्य और वानर को तुच्छ समझता था। यह भी मेरी गलती थी।
रावण ने लक्ष्मण को तीसरी और अन्तिम यह बात बताई कि अपने जीवन का कोई रहास्य किसी को भी नहीं बताना चाहिए। विभीषण मेरी मृत्यु का राज जानता था। यदि मैंने उसे न बताया होता तो शायद आज मेरी यह अवस्था न होती।'
उसके बाद रावण ने कहा - 'लक्ष्मण, मैं अपने जीवनकाल में चार कार्य करना चाहता था पर असफल रहा। सबसे पहले अपनी लंका के आसपास के सौ योजन समुद्र का जल मीठा करना। दूसरा कार्य था अपनी सोने की लंका को सुगन्धित करना। तीसरा कार्य जो मैं करना चाहता था, वह था स्वर्ग तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनवाना। चौथा कार्य था मृत्यु को अपने वश में करना।'
मैं ये चारों कार्य बहुत सरलता से चुटकी बजाते ही सम्पन्न कर सकता था। किन्तु चाहकर भी इन्हें पूर्ण नहीं कर पाया, ये अधूरे रह गए। मैं इन्हें मामूली कार्य कहते हुए टालता रहा। यही कारण है कि आज मैं अपने इन इच्छित कार्यों को बिना पूर्ण किए इस संसार से विदा ले रहा हूँ। किसी भी कार्य की अवहेलना करना अथवा उसे छोटा मानकर आजकल करते हुए टालमटोल करना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल कहलाती है।
मैं जो भी कार्य सम्पादित करना चाहता था, उन्हें नहीं कर सका। अपनी इन गलतियों का अब मैं प्रायश्चित कर रहा हूँ पर सब व्यर्थ है। लक्ष्मण, इसलिए मेरा परामर्श यही है कि अपने जीवन मैं तुम ऐसी गलती कभी मत करना।' यह कहकर रावण की आँखें बन्द होने लगीं।
नीति-उपदेश ग्रहण करने के पश्चात लक्ष्मण रावण की पार्थिव देह को प्रणाम करके अपने शिविर में भाई के पास वापिस लौट आए।
रावण ने यह बात बहुत अच्छी कही कि आज का काम कल पर नहीं छोड़ना चाहिए। इस तरह बारबार कार्य को टालते रहने से उसके पूर्ण होने की सम्भावना क्षीण हो जाती है। बाद में मनुष्य के लिए केवल प्रायश्चित करना ही शेष बचता है। समय बीत जाने के बाद जब चिड़ियाँ खेत चुग जाती हैं तब पछताने का भी कोई लाभ नहीं होता। बस लकीर ही पीटते रह जाना पड़ता है। अपने रहस्य भी उजागर नहीं करने चाहिए और किसी को तुच्छ नहीं समझना चाहिए।
इस घटना को पुनः स्मरण करने का तात्पर्य मात्र इतना है कि शत्रु से ज्ञान प्राप्त करना यदि नीति के विरुद्ध होता तो भगवान श्रीराम अनुज लक्ष्मण को अपने परम शत्रु व अहंकारी परन्तु उच्चकोटि के ज्ञानी रावण के पास उपदेश लेने के लिए कभी न भेजते। जिस प्रकार सोने को कहीं से भी प्राप्त करने से उसकी गुणवत्ता कम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञान भी अमूल्य रहता है। इसलिए जब और जहाँ अवसर मिले उसे ग्रहण करने से चूकना नहीं चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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