अपनी मेहनत की कमाई का सदुपयोग प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए। अपने खून-पसीने से अर्जित धन से अपने घर-परिवार, अपने बच्चों और अपने माता-पिता की आवश्यकताओं को पूर्ण करना चाहिए। साथ ही अपना इहलोक और परलोक सुधारने के लिए धन को देश, धर्म और समाज की भलाई के कार्यों में व्यय करना चाहिए यानी दान देना चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा करे तो उससे बड़ा बड़भागी और कोई नहीं हो सकता।
इन्हीं विचारों पर प्रकाश डालती एक कथा कुछ समय पूर्व पढ़ी थी। आप लोगों ने भी इसे पढ़ा होगा। कुछ परिवर्तन और भाषागत शुद्धियों के साथ हम इस प्रेरक कथा पर प्रकाश डालते हैं।
प्राचीन समय की बात है धर्मपुरी नगर के राजा सोमसेन शिकार खेलने के बाद अपने नगर की ओर लौट रहे थे कि जंगल में अपने सैनिकों से बिछुड़ गए। वे जंगल से अकेले ही अपने नगर की तरफ चल पड़े। रास्ते में चलते हुए उन्हें एक आदमी मिला जो बाँसुरी बजाते हुए नगर की तरफ जा रहा था। दोनों साथ-साथ चलने लगे। बातों ही बातों में राजा ने उस व्यक्ति से पूछा- "वह कौन है? वह क्या काम करता है? उसका कैसे गुजारा चलता है?" आदि।
उस आदमी ने कहा- "मै एक लकडहारा हूँ और लकड़ी काटने का काम करता हूँ। प्रतिदिन मैं चार रुपये कमाता हूँ। पहला रुपया कुएँ में फेंक देता हूँ, दूसरे रुपये से कर्जा चुकता हूँ, तीसरा रुपया उधार देता हूँ और चौथा रुपया मैं जमीन में गाड़ देता हूँ।"
लकड़हारा अपनी कहानी कह रहा था।राजा उससे इस बारे में पूछना ही चाहता था कि तभी सैनिक राजा को ढूंढते-ढूंढते वहाँ आ गए और फिर राजा उनके साथ चला गया।
राजा ने दूसरे दिन अपने दरबार में सभी लोगों को उस लकडहारे की बात बताई और पूछा- "वह लकडहारा जो चार रुपये खर्च करता है, उन्हें कैसेे और कहाँ खर्च करता है?"
इस बात का जवाब कोई भी व्यक्ति नहीं दे सका। राजा ने सिपाही को आदेश दिया- "जाओ और उस लकडहारे को दरबार में मेरे सामने उपस्थित करो।"
सिपाही ने लाकर के राजा के सामने लकडहारे को पेश कर दिया। राजा ने उसे बीते दिन के जवाब का खुलासा करने के लिए कहा- "उस लकड़हारे ने कहा कि पहला रुपया मैं कुएँ में फैंकता हूँ। इसका अर्थ है कि मैं पहले रुपये से अपने परिवार का पालन करता हूँ। दूसरे रुपये से मैं कर्जा चुकता हूँ यानि मेरे माता-पिता बूढ़े हैं, उनके इलाज और खर्चे को पूरा करता हूँ।उनका जो उपकार है वो कर्जा मेरे ऊपर है, उसको चुकता हूँ। तीसरे रुपया मैं उधार देता हूँ, इसका मतलब ये है कि इस रुपये को मैं अपने बच्चों की शिक्षा आदि पर खर्चा करता हूँ। ताकि जब में बूढ़ा हो जाऊँ तो उधार दिया हुआ वह रुपया मेरे को काम आ सके। चौथा रुपया मैं जमीन में गाड़ देता हूँ, इसका मतलब हुआ कि चौथा रुपया मैं धर्म-ध्यान, दान-दक्षिणा और लोगों की सेवा में खर्चा करता हूँ। यह तब मेरे काम आएगा जब मैं इस दुनिया से विदा होऊँगा।"
यह कहानी हमें समझ रही है कि मनुष्य को अपने सभी दायित्वों को पूर्ण करने में सजग रहना चाहिए। अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बचना नहीं चाहिए। सारा दर्शन घूम-फिरकर पत्नी, बच्चों के साथ-साथ माता-पिता की देखभाल करने पर समाप्त होते हैं। इसलिए उनकी अनदेखी करने को ईश्वर का तिरस्कार करना कहा जाता है। मनुष्य समाज से बहुत कुछ लेता है। अतः उसे सामाजिक दायित्वों को निभाने में कदापि कोताही नहीं बरतनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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