मनुष्य का स्वभाव सूप (छाज) की भाँति होना चाहिए यानि सार तत्व को ग्रहण करने वाला होना चाहिए और जो कुछ भी अनावश्यक है अर्थात कूड़ा है उसे उड़ा देने वाला होना चाहिए। यह वास्तव में बहुत ही व्यावहारिक ज्ञान है।
सूप में जब अनाज को साफ करने के लिए फटका जाता है तो उसमें जो भी कूड़ा-कर्कट होता है वह आगे आ जाता है जिसे फैंक दिया जाता है। यह क्रम तब तक चलता है जब तक अनाज साफ न हो जाए। सूप का यही स्वभाव है कि वह साफ-सुथरी वस्तुओं को अपने पास रखता है और उनमें पड़े कूड़े को उड़ाकर अलग कर देता है।
यदि मनुष्य जीवन में आने वाले कटु-मधुर अनुभवों से कुछ सकारात्मक शिक्षा यानि सार तत्व ग्रहण कर लेता है तो उसका जीवन सफल हो जाता है। परन्तु यदि नकारात्मक ज्ञान यानि व्यर्थ बातों में स्वयं को उलझाए रखता है तो उसका जीवन दूभर हो जाएगा।
जीवन का सार तत्त्व यही है कि मनुष्य ईमानदारी और सच्चाई से अपनी रोजी-रोटी कमाए। किसी से ईर्ष्या-द्वेष न करे। अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक दायित्वों को यथाशक्ति पूर्ण करे। अपने देश के प्रति वफादारी निभाए। बिना किसी पूर्वाग्रह के घर में आने वाले सभी अतिथियों का खुले मन से स्वागत करे। सच्चे मन से ईश्वर का स्मरण नियमपूर्वक करता रहे।
धर्म व समाज विरोधी कार्य मनुष्य जीवन में व्यर्थ के व्यवहार हैं। उनसे यथासंभव बचना चाहिए क्योंकि बुराइयों की जड़ वे मनुष्य के लिए कष्ट का कारण बनते हैं।
ज्यों-ज्यों मनुष्य जीवन में उन्नति करता है त्यों-त्यों उसमें दुर्गुणों के आने की संभावना बढ़ जाती है। यदि उस समय वह याद रखे कि मुझे इन दुर्गुणों से बचना है, अपने जीवन में इन्हें स्थान नहीं देना है तो वह अपनी परीक्षा में खरा उतरता है।
ऐसे व्यक्ति की सुगन्ध उसके बिना कुछ कहे चारों ओर स्वयं ही फैल जाती है। वह सबके लिए आदर्श बन जाता है, सबके लिए उदाहरण बन जाता है। लोग उसके जैसा बनने का यत्न करने लगते हैं। उसे अपने सिर माथे पर बिठाते हैं।
ऐसा सारग्राही व्यक्ति ही पथप्रदर्शक बनकर नेतृत्व करता है। लोग उसके सद् परामर्श से अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयास करते हैं।
मानव मन बहुत ही चंचल है। यह यहाँ-वहाँ कभी भी, कहीं भी भटकता रहता है। यह मन क्षणिक लालच, तुच्छ स्वार्थ अथवा भय के कारण शीघ्र ही विचलित हो जाता है। उस समय सभी जीवन मूल्य, जो सार हैं उन्हें ताक पर रखने में हिचचिकाता नहीं है। तब वह गलत रास्ते का चुनाव कर भटक जाता है। फिर समय बीतते वह कूड़े-कर्कट की तरह बाहर निकालकर फैंक दिया जाता है।
इसीलिए हमारे मनीषी समझाते हैं कि दुनिया के आकर्षणों में फंसकर स्वयं को दुखों की भट्टी में मत झोंको। ऐसा करके मनुष्य न स्वयं को कष्ट देता है अपितु अपने उन प्रियजनों के लिए भी दारुण दुख का कारण बन जाता है जिन्हें अपने जीवन काल में गर्म हवा तक नहीं लगने देना चाहता। यदि थोथेपन को अपनाने या उस मार्ग पर चलने का विचार मन में आए तो उसके दुष्परिणाम सोचते हुए उसे झटक दो या उड़ा दो, इसी में बुद्धिमत्ता है। इसीलिए कबीरदास कहते हैं -
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय॥
चन्द्र प्रभा सूद
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