उपनिषद कथा है कि प्राचीन काल में इन्द्रियों के मध्य अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए झगड़ा हुआ। आँख, नासिका, कान (श्रवण शक्ति), जिह्वा (बोलने की शक्ति), मन और प्राण सभी अपने आप को श्रेष्ठ बता रहे थे।
अंत में वे सभी प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और उन्हें अपने विवाद का कारण बताया। उन्होंने उन सबको कहा कि जिसके शरीर से चले जाने के बाद सब समाप्त हो जाए वही श्रेष्ठ है। सबने इस सुझाव पर अमल किया।
सबसे पहले आँखें शरीर से एक वर्ष के लिए बाहर गयीं। लौटकर उन सबसे पूछा - 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।'
उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे एक अंधा व्यक्ति कानों से सुनता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआ और मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
फिर नासिका (सूँघने की शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे न सूँघते हुए व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, वाणी से बोलता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम भी जीवित रहे।'
फिर कान (श्रवण शक्ति) एक साल बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
उन सब ने उत्तर दिया- 'जैसे एक बहरा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता वैसे ही हम जीवित रहे।'
फिर वाक् (बोलने की शक्ति) बाहर गयी और उसने लौट कर पूछा- 'तुम तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे।'
उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे एक गूंगा व्यक्ति आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
फिर उसी तरह मन ने एक साल बाद लौटकर पूछा- 'तुम सब मेरे बिना कैसे जीवित रहे?'
उन्होंने ने उत्तर दिया- 'जैसे बिना मन के बच्चा आँखों से देखता हुआ, नासिका से सूँघता हुआ, कानों से सुनता हुआ, जिह्वा से बोलता हुआह, मन से विचार करता हुआ जीवित रहता है वैसे ही हम जीवित रहे।'
अंत में प्राण शरीर से बाहर निकलने लगे तो ऐसा लगा कि सब कुछ समाप्त हो रहा है। उस समय सभी इन्द्रियाँ एक साथ चिल्लाने लगीं - 'मत जाओ, मत जाओ। तुम्हारे बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। तुम चले जाओगे तो सब समाप्त हो जाएगा। तुम्हीं हम सब में श्रेष्ठ हो।'
यह कथा हमें प्राणों का महत्त्व समझा रही है कि उनके बिना इस शरीर का कोई मूल्य नहीं। नश्वर शरीर में रहने वाली अनश्वर आत्मा को हम भूल जाते हैं। शरीर के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं और इसी को सजाते-संवारते रहते हैं। इस बात को भी नजरअंदाज कर देते हैं कि रूप-यौवन जल्दी ही ढल जाएगा। यह आत्मा युगों-युगों तक रूप बदलती रहती है। अत: आत्मज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सार्थक करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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