अपने मूल स्वभाव को त्याग पाना किसी भी जीव के लिए बहुत कठिन कार्य होता है। ऐसा ही मनुष्य का भी हाल होता है। कुछ समय के लिए तो मनुष्य अपना जन्मजात स्वभाव बदल सकता है परन्तु दीर्घकाल तक उस पर टिके रहना उसके लिए सम्भव नहीं हो पाता। इसका कारण है उसकी चञ्चल प्रकृति जो उसके स्थायित्व में सदा बाधक बनती है। इसीलिए कुछ समय बीतते वह ऊबकर पुनः अपने वास्तविक स्वरूप में पलटकर आ जाता है।
मनुष्य का मूल स्वभाव यही है कि कुछ भी बोलने और तोड़ने में केवल पलभर का समय उसे लगता है जबकि रिश्तों को बनाने, मनाने और निभाने में उसका पूरा जीवन व्यतीत हो जाता है। इसी प्रकार निर्माण करने की प्रक्रिया बहुत ही कठिन, जटिल और ऊबाऊ होती है। इसके विपरीत विध्वंस पलक झपकते हो जाता है जिसका ज्ञान विनाश के पश्चात उसे हो पाता है।
जब तक मनुष्य स्वयं को धोखा देता रहता है तब तक उसका सुधार किसी भी शर्त पर नहीं हो सकता। मनुष्य जब तक स्वयं में बदलाव करने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होता तब तक उसमें परिवर्तन होना असम्भव होता है। जब वह अपने अंतस के विचारों में परिश्रमपूर्वक परिवर्तन कर लेता है, तब उसका हृदय भी परिवर्तित हो जाता है। यह अपने आप में एक शुभ संकेत होता है।
यहाँ कुछ उदाहरण देखते हैं। साँप को कितना भी दूध पिलाओ परन्तु वह जहर उगलने का स्वभाव नहीं त्यागता। बिच्छू भी डंक मारने से बाज नहीं आता। शेर, चीता आदि हिंसक पशु भी दूसरे जीवों का भक्षण करते ही रहते हैं। इसीलिए शायद यह उक्ति कही जाती है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है।
गाय, भैंस, बकरी आदि पशु अपने परोपकारी स्वभाव को नहीं छोड़ पाते। कहने का तात्पर्य है कि हिंसक जीव हिंसा करना नहीं छोड़ सकते जबकि अहिंसक जीव भक्षक नहीं बन सकते। दुष्ट अपने दुष्कर्मों में लिप्त रहते हैं। उनके हृदय का परिवर्तन कुछ समय के लिए हो सकता है किन्तु सदा के लिए नहीं। वे स्वभाववश किसी-न-किसी बहाने पुनः अपनी टेढ़ी चाल चलने लगते हैं।
इसी प्रकार सम्पूर्ण प्रकृति अपने परोपकारी स्वभाव का परित्याग नहीं करती। हाँ कुछ समय के लिए दैवी आपदाएँ अवश्य आ जाती हैं अर्थात बाढ़, भूकम्प, सुनामी, भूस्खलन आदि आपदाएँ आ जाती हैं। इनके कारण सृष्टि में चारों ओर हाहाकार मच जाता है। फिर कुछ समय पश्चात सब सामान्य होने लगता है। धीरे-धीरे मनुष्य उस विपरीत स्थितियों से उबरने लगता है।
मनुष्य पानी को कितना भी गर्म क्यों न कर ले, वह थोड़ी ही देर के बाद अपने मूल स्वभाव में आ जाता है यानी शीतल हो जाता हैं। इसी प्रकार वह कितने भी क्रोध, भय या अशांति में रह ले किन्तु कुछ ही समय के पश्चात उसमें निर्भयता और प्रसन्नता आ ही जाती है। इससे भी अधिक अपने प्रियतम के वियोग हो जाने पर कुछ समय पश्चात सब पूर्ववत सामान्य होने लगता है।
मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह अहंकार के कारण नशे में चूर रहता है, तब वह दूसरों से सदा क्षमायाचना करवाना चाहता करता है। वह नहीं चाहता कि कोई उसकी बात को काटे अथवा उससे किसी भी क्षेत्र मे आगे निकल जाए। जब वह प्रेम में आकण्ठ डूबा होता है तब क्षमायाचना करना सदा उसे पसन्द करता है। वह किसी भी शर्त पर उसे पाने की कामना करता है।
इन्सानी कमजोरी को हम अनदेखा नहीं कर सकते। कभी-कभी उसका अपना स्वभाव ही उसका शत्रु बन जाता है। जब वह अपने मानस को टटोलता है अथवा उसका सुप्त विवेक जागृत हो जाता है, तब वह अपनी मूल प्रकृति की ओर लौट आता है। उसके स्वभाव में होने वाला यह उतार-चढ़ाव कभी स्थायी नहीं रह सकता। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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