हमारी भारतीय संस्कृति में माता-पिता को ईश्वर का रूप कहा जाता है। इसीलिए घर के बड़े-बुजुर्ग घर की शान कहे जाते थे, उनके परामर्श के बिना कभी कोई भी कार्य नहीं किया जाता था। हर स्थान पर उन्हें मान देते हुए आगे रखा जाता था। आज बहुत से युवा उन्हीं को फालतू मानकर तिरस्कृत कर रहे हैं। वे सोचते हैं कि ये बुजुर्ग बिना वजह कमरा घेरकर बैठे हुए हैं। ये परलोकवासी हों तो उनका कमरा खाली हो जाए। उनकी बातें उन्हें बकझक प्रतीत होती हैं। उनकी चिन्ता करना तो दूर उनके विषय में वे चर्चा भी तक नहीं करना चाहते। दूसरों के घर के बुजुर्ग उन्हें बहुत अच्छे लगते हैं पर अपने घर के बुजुर्ग माता-पिता उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते।
इसलिए बुजुर्गों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। उन्हें दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूर्ण करने में भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। दिन-प्रतिदिन अशक्त होते वे अपने कार्यों को करने में भी असमर्थ होते जा रहे हैं। वृद्धावस्था में जीवन यापन करना वाकई उनके लिए समस्या बनता जा रहा है। जिन बुजुर्गो के पास प्रभूत धन है, वे फाईव स्टार ओल्ड होम्स में सुविधा से रह सकते हैं। यहाँ भी पैसा प्रधान हो रहा है। परन्तु जिन बुजुर्गों के पास पर्याप्त साधन नहीं है, वे दरबदर की ठोकरें खाने के लिए विवश हैं। उन्हें न कोई घर में पूछता है और न ही ओल्ड होम्स में। उनकी व्यथा-कथा सुनकर या पढ़कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं और मन बहुत ही व्यथित हो जाता है।
बुजुर्गों की स्थिति घर में ही नहीं बाहर भी चिन्ताजनक है। इस विषय में कुछ समय पूर्व एक सर्वेक्षण कराया गया था और वह समाचार पत्र में प्रकाशित किया गया था। उसके अनुसार लगभग 44℅ बुजुर्ग कहते हैं कि सार्वजनिक स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। 53℅ बुजुर्ग कहते हैं कि भारतीय समाज उनके साथ भेदभाव करता है। बैगलोर के 70℅ बुजुर्ग कहते हैं कि पार्क में टहलना उनके लिए बुरे सपने की तरह है।
हेल्पेज इंडियंस के द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार-
दुनिया के लिए सबसे बेहतरीन और सबसे खराब जगहों में वैश्विक रैंकिंग में स्विट्जरलैंड का नाम सबसे अच्छी जगह और भारत का नाम सबसे खराब में शुमार किया गया है। हेल्पेज इंटरनेशनल ऑफ चैरिटीज की ओर से तैयार ग्लोबल एंड वाच इंडेक्स में 96 देशों में भारत को 71वें नंबर पर रखा है।
इस सर्वेक्षण के अनुसार घर का सिरमौर कहे जाने वाले बुजुर्गों की ऐसी दुर्दशा के लिए हम सभी उत्तरदायी हैं। बस में, मेट्रो में सीट आरक्षित होने पर भी बुजुर्गों को बहुधा माँगकर सीट लेनी पड़ती है। सार्वजनिक स्थानों पर भी उनके साथ बुरे व्यवहार की खबरें यदा कदा प्रकाश में आती रहती हैं। धन, सम्पत्ति अथवा व्यापार को माता-पिता की इच्छा से या धोखे से हथियाकर उन्हें बेघर करने वाली नालायक सन्तति को लानत देते हुए समाचार गाहे-बगाहे प्रकाशित होते रहते हैं।
आधुनिकता की अन्धी दौड़ में पैसे के पीछे भागते हुए हम भटकने लगे हैं। अपने नैतिक दायित्वों से मुँह मोड़ते जा रहे हैं। यह स्थिति वास्तव में बहुत ही कष्टप्रद है।भारत अपने नैतिक आदर्शों के लिए और विश्व को शिक्षित करने के कारण ही विश्वगुरु कहलाता था, विश्व में एक उदाहरण था। आज वह 96 देशों के सर्वे में लुढ़कता हुआ 71 वें पायदान पर जा पहुँचा है।
बच्चे चैन की बाँसुरी बजाएँ, खूब ऐश करें और उनके बुजुर्ग माता-पिता असहाय अवस्था में दाने-दाने के लिए मोहताज हो जाएँ। अथवा अन्तिम अस्त्र आत्महत्या का मार्ग चुनने के लिए विवश हो जाएँ तो ऐसी संवेदनशील सन्तान से मनुष्य का बेऔलाद होना ही अच्छा है। उनके मन में यह सन्ताप तो नहीं होगा कि बच्चे होते तो बुढ़ापे की लाठी बनते।
चन्द्र प्रभा सूद
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