प्रसन्नता किसी की दासी नहीं कि वह चाहे तो उसके पास सदा के लिए रह जाए। हर व्यक्ति प्रसन्न रहना चाहता है। कोई नहीं चाहता कि दुख-तकलीफें उसके पास फटकें। समस्या यह है कि प्रसन्नता मनुष्य के पास अधिक समय तक टिक नही पाती। वह आती तो है पर मनुष्य के हाथ से उसी तरह फिसल जाती है जैसे रेत से मछली। इससे जो समझ आता है वह यह है कि खुशियाँ जब आती हैं तब मनुष्य उनमें इतना डूब जाता है कि उसे दीन-दुनिया की खबर नहीं रहती। वह सब कुछ भूलकर मस्ती में डूब जाता है। इसलिए वे क्षण मानो आकर उड़न छू हो जाते हैं। उसे लगता है कि खुशी आई भी और पता ही नहीं चला।
इन खुशियों को समेटने के लिए मनुष्य को लम्बी-चौड़ी योजनाएँ नहीं बनानी पड़तीं। उनके क्रियान्वयन की कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती। बड़ी-बड़ी खुशियाँ मनुष्य के पास यथासमय आती हैं। उसे अपने आसपास तत्कालिक छोटी-छोटी खुशियाँ ढूंढनी चाहिए जिससे वह प्रसन्न रह सके। उसके लिए बस कुछ ठोस कदम उठाकर ही मनुष्य अपनी प्रसन्नता को लम्बे समय तक बनाकर रख सकता है। इस प्रसन्नता को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं।
सबसे पहले शारीरिक प्रसन्नता की बात करते हैं। मनुष्य का शरीर स्वस्थ रहेगा तो उसे अपने कार्यों को निपटाने में कष्ट नहीं होगा। काया का निरोगी होना मनुष्य के लिए सबसे वरदान है, अमूल्य सुख है। इसे रोगरहित रखने के लिए प्रतिदिन नियमपूर्वक पौष्टिक खाना खाना चाहिए। जंक फूड से परहेज करना चाहिए। मैं यह नहीं कहती उसे अछूत मानकर उसका तिरस्कार करो। पर प्रतिदिन के खाने में उसे शामिल न करें। सादा और पौष्टिक भोजन खाने से शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर के स्वस्थ रहने से मन प्रफुल्लित रहता है। मन में उत्साह व स्फूर्ति बानी रहती हैं। हर कार्य को करने में मन लगा रहता है।
इसके साथ ही प्रतिदिन नियमपूर्वक समय से आराम करना चाहिए। समय से सोना-जागना शरीर को शिथिल नहीं होने देता। आजकल जीवनशैली में आया परिर्वतन शरीर में विकार लेकर आ रहा है। इससे शरीर में सुस्ती रहती है, किसी काम में मन नहीं लगता। अपने समय में से थोड़ा-समय निकालकर मनुष्य को प्रतिदिन व्यायाम करना चाहिए। इससे शरीर का अंग-प्रत्यंग खुलता है। शरीर की मोटरें ठीक से कार्य करने लगती हैं। शरीर में स्फूर्ति बानी रहती है। उचित आहार-विहार और व्यायाम करके शरीर को प्रसन्न रखने का प्रयास करना चाहिए।
अब हम मानसिक प्रसन्नता की बात करते हैं। अपेक्षाएँ काम रखने से मन शान्त रहता है, इससे मानसिक प्रसन्नता बनी रहती है। जितनी अधिक अपेक्षाएँ मनुष्य पालता है, उतना ही दुखी रहता है। उसे लगता है कि जितना मैं दूसरों के लिए करूँ, उतना ही वे उसके लिए करें। जब ऐसा नहीं हो पाता तो वह अपने सभी परिवारी जनों और बन्धु-बान्धवों पर चिल्लाता है, उन्हें कोसता है। इससे उसके मन में सकारात्मक विचार दूर होते जाते हैं। उनका स्थान नकारात्मक विचार ले लेते हैं। यहीं से उसके दुखों और परेशानियों का दौर शुरू हो जाता है। वह अपने झूठे अहं के कारण सबसे किनारा कर लेना चाहता है। उसे लगता है कि उसकी हेठी हो गई है जिसे वह सहन नहीं कर पाता। जितना अपने से हो सके दूसरों के लिए करना चाहिए पर बदले में अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। मनुष्य को अपने अहं को वश में करके सदा नकारात्मक विचारों से मुक्त होने का प्रयास करते रहना चाहिए। तभी उसे मानसिक प्रसन्नता मिल सकती है।
अन्त में आध्यात्मिक प्रसन्नता की चर्चा करते हैं। शरीर एक साधन के रूप में मनुष्य को ईश्वर ने दिया है। इस शरीर में विद्यमान आत्मा को प्रभु तक लेकर जाने का यह माध्यम मात्र है। जब मनुष्य शरीर को साध्य मान लेता है तो उसी की सार-सम्हाल में लगा रहता है। सारा समय उसे सजाता रहता है। उस समय वह आत्मा, परमात्मा, जन्म, मृत्यु सब भूल जाता है। जो मनुष्य इस रहस्य को जानकर अपनी आत्मिक उन्नति करते हैं, उन्हें आध्यात्मिक प्रसन्नता मिलती है।
अन्त में यही कहना चाहती हूँ कि भूतकाल में जो गलतियाँ की हैं उन्हें भूलकर वर्तमान में जीने का अभ्यास करना चाहिए। भविष्य में क्या होगा इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। उसे समय के हाथ में सौंप देना चाहिए।
अपनी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रसन्नता की ओर ध्यान देना अनिवार्य है। सदा प्रभु को धन्यवाद देते हुए उससे प्रार्थना करते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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