जीवहत्या को हम क्या मानते हैं, हमारी सोच पर निर्भर करता है। यह एक बहुत बड़ा अपराध है। किसी को भी कारण-अकारण जान से मार देना कोई बड़ा बहादुरी का कार्य नहीं है। इसलिए हर सामर्थ्यवान व्यक्ति का कर्त्तव्य बनता है कि वह यथासम्भव असहायों की रक्षा करे। यहाँ हम चर्चा करेंगे कि किन-किन मनुष्यों का वध न करके उनकी रक्षा करना कर्त्तव्य होता है।
महर्षि वाल्मीकि ने 'वाल्मीकि रामायण' में इसे स्पष्ट करते हुए कहा है-
अयुद्धयमानं प्रच्छन्न प्राञ्जलिं शरणगतम्।
पलायन्तं प्रमत्त वा न त्वं हन्तुमिहार्हसि॥
अर्थात् (अयुद्धमान ) बिना शस्त्र के, (प्रच्छन्न ) छिपा हुआ, (करबद्ध ) हाथ जोड़े हुए , (शरणागत ) शरण में आए हुए, पलायन करने वाले अथवा उन्मत्त (पागल) व्यक्ति का वध करना उचित नहीं है।
इसी विषय पर 'हिंगुलप्रकरण' में प्रकाश डालते हुए कहा है-
यो दधाति तृणं वक्त्रा प्रत्यनीकोSपि मानवो।
सोSवध्य: सतां लोके कथं वध्यातृणादना:
अर्थात् जो शत्रु अपने मुख में तृण ले लेता वह अवध्य होता है यानि उसका वध नहीं किया जाता।
जो व्यक्ति निहत्था है, उस पर वार करना अनुचित होता है। हथियारों से लैस यदि निरपराधियों को मौत के घाट उतार देता है तो इसे कायरता ही कहा जाएगा। अपने बराबर के लोगों से युद्ध किया जाए तो उसका परिणाम द्रष्टव्य होता है।
जो व्यक्ति छिपा हुआ है, उस पर भी वार नहीं करना चाहिए। प्राचीनकाल में युद्ध के मैदान में भी ऐसा न करने के लिए कहा जाता था। हो सकता है डर के कारण छिप जाने वाला निर्दोष हो।
जो व्यक्ति हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहा है, क्षमायाचना कर रहा है उसे मारकर भी कोई तमगा नहीं मिल सकता। उसे यदि क्षमा कर दिया जाए तो वाह-वाही अवश्य मिल सकती है।
शरण में आए हुए शरणागत की रक्षा करना हर मनुष्य का कर्त्तव्य होता है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हमें मिल जाएँगे, जहाँ शरणागत जीव की रक्षा करने के लिए अपने प्राणों को भी संकट में डाल दिया गया। राजा शिवि से बड़ा उदाहरण क्या होगा जिन्होंने निरीह कबूतर की रक्षा के लिए स्वयं को बाज के हवाले कर दिया था।
पलायन करने वाले का भी वध नहीं करना चाहिए। वह तो बेचारा स्वयं हालात का सामना नहीं कर पा रहा। इसीलिए वह पीठ दिखाकर भाग रहा है। उसे छोड़ देना चाहिए।
दुर्भाग्यवश जो उन्मत्त है, उसे मारकर कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। उसे अपने हाल पर ही छोड़ देना चाहिए।
जो व्यक्ति पहले से ही हार मान ले या मुँह में तिनका डाल ले उसका भी वध नहीं करना चाहिए।
ऐसे सभी शत्रु दया के पात्र होते हैं। उनका वध नहीं करना चाहिए। आज भी किसी अन्य देश में शरण लेने वाले किसी राजनायिक को या किसी मनुष्य को पूर्ण सुरक्षा दी जाती है। जो सेना युद्धक्षेत्र से पलायन करती है, उसे जाने दिया जाता है। दो देशों में सुरक्षा मुद्दों पर आवशकयक चर्चा होना भी इसी का ही एक रूप है। एक देश के नागरिक या मछुआरे आदि गलती से दूसरे देश की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं, उनसे पूछताछ करके बाद में छोड़ दिया जाता है।
प्राचीनकाल में युद्ध के भी नियम होते थे, जिनका पालन सभी राजा किया करते थे। आजकल सभी नियमों को ताक पर रख दिया गया हैं। आधुनिक हथियारों से लैस शस्त्र न दिन देखते हैं और न रात ही देखते हैं, बस हमला करके निर्दोष नागरिकों को मौत के घाट उतार देते हैं। राजनैतिक क्षेत्र में या युद्ध के मैदान में शायद ये सारी बातें बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध न हो सकें, परन्तु दैनन्दिन जीवन में इन सबकी हमें बहुत ही आवश्यकता होती है। मनुष्य जितना ही अधिक क्षमाशील बनता है, उतना ही उसे यश और मानसिक सन्तोष मिलता है, जो उसकी सबसे बड़ी दौलत होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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