सत्य परेशान हो सकता है परन्तु पराजित नहीं। जो सत्य पर अड़ा रहता है उसका साथी बनकर परमात्मा सदा उसके खड़ा रहता है। दुनिया में इस सत्य को कोई मनुष्य पराजित नहीं कर सकता। इसलिए इसे अपराजेय कहते हैं। 'सत्यमेव जयते'- कहकर शास्त्र हमें जगाते हैं और समझाते हैं कि अन्ततः सत्य बाजी जीतकर विजयी रहता है। कोई उसके पैरों की बेड़ी नहीं बन सकता।
बादलों के द्वारा आच्छादित हुआ सूर्य कुछ समय के लिए हमारी नजरों से ओझल हो सकता है, परन्तु वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। समय बीतते बादलों को चीरकर, वह फिर से एक मधुर-सी मुसकान लिए हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। पूर्ववत प्रकाश और ताप देने के अपने कार्य में जुट जाता है। बादलों और सूर्य का लुकाछिपी का यह खेल कुछ समय के लिए तो खेला जा सकता है किन्तु सदा के लिए कदापि नहीं खेला जा सकता।
इसी प्रकार सत्य को झूठ कुछ समय के लिए आक्रान्त कर सकता है। सत्य तो आखिरकार सत्य है। सत्य पर असत्य का मुलम्मा कुछ समय के लिए चढ़ाया जा सकता है, हमेशा के लिए नहीं। इस विषय में ईशोपनिषद कहती है -
हिरण्मयेण पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
अर्थात स्वर्णिम पात्र से सत्य का मुँह ढका हुआ है।
इस मन्त्रांश का अर्थ यही है कि असत्य का आवरण इतना आकर्षक होता है कि मनुष्य उसमें अटककर रह जाता है। जब तक वह उस आवरण को अनावृत्त नहीं (खोलेगा) करेगा तब तक वह उस सत्य तक नहीं पहुँच सकता। यही कारण है कि हम सबकी जिन्दगी मुखौटानुमा बनती जा रही है। इसीलिए हमारे कार्य और व्यवहार सब अलग-अलग होते हैं।
एक समय ऐसा भी आता है जब यह सत्य अपने प्रतिद्वन्द्वी असत्य के सारे दावों और कसमों को झुठलाता हुआ सबके सामने शान्त भाव से आकर खड़ा हो जाता है। सत्य किसी के भी समक्ष झुक नहीं सकता। न ही वह अपनी गर्दन कदापि झुका सकता है। उस समय वह असत्य के बखिए उधेड़कर रख देता है। तब उस असत्य को अपनी सफाई में कुछ भी कहने का मौका ही नहीं देता।
इस संसार में लोग बड़ी सफाई से एक-दूसरे को झूठ परोसकर इतराते हैं कि सामने वाले को उन्होंने मूर्ख बना दिया है। फिर अपनी इस तथाकथित सफलता पर वे बहुत प्रसन्न भी होते हैं। किसी ओर की प्रतीक्षा किए बिना ही अपने उठाए गए साहसिक कदम के लिए वे स्वयं ही अपनी पीठ को थपथपा लेते हैं।
एक ओर जहाँ दूसरों के साथ झूठ का व्यवहार करके मनुष्य गर्व का अनुभव करता है, वहीं दूसरी ओर स्वयं दूसरों के द्वारा झूठ से मूर्ख बनते समय वह अपना आपा खो देता है। उस समय उसकी कोई मित्रता शेष नहीं बचती, केवल शत्रुता ही परवान चढ़ती है। वह असत्यवादियों से आजन्म सम्बन्ध तोड़ लेने की कसमें खाने लगता है। उसके मन में अविश्वास के अँकुर पनपने लगते हैं।
तब उन्हें विस्मृत हो जाता है कि इसी असत्य के कार्य-व्यवहार से उन्होंने दूसरे को हानि पहुँचाई थी। उस समय उनकी अपनी नैतिकता कहाँ चली गई थी? ऐसा तो कदापि नहीं हो सकता कि कोई बात नहीं अपना असत्य तो सत्य है पर दूसरे का असत्य मैं क्यों झेलूँ?
समाज में लेन देन के बाट जब तक भिन्न रखे जाएँगे तब तक यह कलह-क्लेश और मनमुटाव होता रहेगा। इनमें जब एकरूपता हो जाएगी तो निस्सन्देह स्वयं ही बहुत सारी समस्याएँ स्वतः समाप्त हो जाएँगी।
सत्य में बहुत अधिक शक्ति होती है। सत्यवादी की जिह्वा पर मानो सरस्वती का वास होता है। उसका हर कथन पत्थर की लकीर होता है। परन्तु असत्य का व्यवहार करने वाले की बात पर न कोई विश्वास करता है और न ही कोई उसे कोई महत्त्व देता है। इसलिए मनुष्य को हर शब्द तौलते हुए अपने मुँह से बाहर निकालना चाहिए। अन्त में यही कहना चाहती हूँ कि सत्यसदा विजयी होता है, असत्य नहीं -
सत्यमेव जयते नानृतम्।
चन्द्र प्रभा सूद
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