दुख चोरों की तरह सेंध लगाकर हमारे घर में घुस आते हैं और हमारे जीवन में उथल-पुथल मचा देते हैं। चाहे हम अपने घर को कितना ही मजबूत किले की तरह बना लें या चाहे सारी खिड़कियाँ व दरवाजे बंद कर लें। फिर भी पता नहीं कहाँ से ये घर में घुसने का मार्ग खोज लेते हैं और सबसे छिपते हुए नजरें बचाकर चले आते हैं। घर आकर शांति से मेहमानों की तरह नहीं बैठते बल्कि सारे घर को और वहाँ रहने वाले सभी को अस्त-व्यस्त कर डालते हैं।
ये दुख बड़ा ही कष्ट देते हैं। इंसान को अपने जाल में ऐसा फंसा लेते हैं कि उससे बचने का कोई रास्ता नहीं सूझता। मनुष्य सोचता ही रह जाता है कि उसे किस गुनाह की सजा मिल रही है।
कुछ दुख हमारी अपनी नादानियों या गलतियों के कारण हमें मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आलस्य, झूठा अहम, अपने दायित्वों का भली-भाँति निर्वाह न करना, लापरवाही बरतना, अनजाने में ही समाज विरोधी कार्य कर बैठना, समुचित आहार-विहार की ओर ध्यान न देना आदि हमारे आने वाले दुखों का कारण बनते हैं। ये सभी कारण हैं जिनका फल हमें शीघ्र ही यानि तत्काल, कुछ समय के उपरान्त या इसी जीवनकाल में मिल जाता है।
इनके अतिरिक्त कुछ दुख ऐसे भी होते हैं जो इस जीवन काल में हमें अपने प्रारब्ध अथवा भाग्य के कारण भोगने पड़ते हैं। सृष्टि की रचना अरबों साल पहले हुई ऐसा हमारे सद्ग्रन्थों का कहना है। हमारे इस भौतिक शरीर में विद्यमान आत्मा ने भी न जाने कितने ही रूप धारण किए होंगे।
हर जन्म में जीव कुछ-न-कुछ अपराध करता है जिसका फल उसे भोगना ही होता है। जिन दोषों का फल वह भोग लेता है वे समाप्त हो जाते हैं। परन्तु जिन दुष्कर्मों का फल हमें नहीं मिलता वे संचित(इकट्ठे) होकर जन्म जन्मान्तर तक हमारे साथ ही चलते रहते हैं।
ऐसी कपोल कल्पना है कि मृत्यु के देवता यमराज के पास हमारे सारे कर्मों का लेखा-जोखा रखने के लिए कोई बही-खाता है जो चित्रगुप्त के पास रहता है। ये हम लोगों को अपराध या गलत काम न करने से डराने के लिए रची गई है। खैर, ये संचित कर्म हमारे साथ ही रहते हैं जिनके अनुसार हमारा भाग्य या प्रारब्ध बनता है।
उसी के अनुसार ही दुख समयानुसार हमारे जीवन में आते हैं और समझाते हैं कि भविष्य के लिए यह चेतावनी है। अब संभल जाओ और अपने जीवन में सत्कर्म करने चाहिएँ।
अपने दुख हम चाहें भी तो कम नहीं कर सकते। जब तक उनको हम भोग नहीं लेते तब तक उनसे मुक्ति नहीं मिलती। इसका कारण है जो भी कर्म हम करते हैं उनका फल तो भोगना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है-
'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।'
अर्थात अच्छे या बुरे जो भी कर्म हम करते हैं उनको भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। ये कर्मफल पवित्र जल में डुबकी लगाने, तीर्थों की यात्रा करने या तथाकथित गुरुओं की शरण में जाने से नहीं कटते।
दुख के समय कोई भी हमारा सहायक नहीं होता सब लोग नजरें फेर लेते हैं। उस समय ईश्वर की उपासना, सुधी जनों का साथ व वेदादि सद् ग्रन्थों का अध्ययन हमें उस कष्ट से मुक्त होने तक मानसिक शांति और उसे सहने की शक्ति प्रदान करते हैं।
इसलिए उस कष्टदायक काल में तथाकथित ज्योतिषियों एवं तान्त्रिकों के पास जाकर अनावश्यक धन व समय की बरबादी से बचना चाहिए। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास को ही हमें अपना एकमात्र आश्रय बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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