अनैतिक अथवा पापकर्म करने वाला मनुष्य अकेला ही उसके फल का भुगतान करता है। उसके परिवारी जन, यहाँ तक कि उसकी अपनी प्रिय पत्नी और उसकी जान कहे जाने वाले बच्चे या बन्धु-बान्धव उसके उस पापकर्म के भागीदार नहीं बनते। उन्हें केवल धन-वैभव से मतलब होता है, वह कैसे कमाया गया है, इस विषय में जानना ही नहीं चाहते। वे केवल मात्र सुफल ही पाना चाहते हैं। उन्हें उसके पापकर्म से कोई लेनादेना नहीं होता। यानी अच्छा-अच्छा गप्प और कड़वा-कड़वा थू वाली उनकी राजनीति होती है।
निम्न श्लोक में कवि इसी भाव को प्रकट कर रहा है-
एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन:।
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥
अर्थात व्यक्ति पाप-कर्म अकेले करता है, लेकिन उसके तात्कालिक सुख के लाभ का बहुत से लोग उपभोग करते हैं और आनन्दित होते हैं। बाद में सुखभोगी तो पापमुक्त हो जाते हैं, लेकिन कर्ता पापकर्मों की सजा पाता है।
इस श्लोक के माध्यम से कवि यही समझने का प्रयास कर रहा है कि गलत रास्ते से कमाए गए धन का उपभोग घर-परिवार के सभी लोग प्रसन्नता से करते हैं। जब उसका दुष्परिणाम या सजा भुगतने की बारी आती है तो मनुष्य के सभी अपने पल्ला झाड़कर स्वयं को उससे अलग-थलग कर लेते हैं। कुफल उस इन्सान को अकेले ही भोगना पड़ता हैं। उस समय उसे समझ आती है कि उसका साथी कोई भी नहीं है।
इस विषय को एक सुप्रसिद्ध घटना के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं। भगवान राम के चरित्र के रचयिता महर्षि वाल्मीकि अपने पूर्ववर्ती जीवन में डाकू हुआ करते थे। उस समय उनका नाम रत्नाकर था। वे अपने साथियों के साथ मिलकर जंगल से गुजरने वाले राहगीरों को लूटा करते थे। एक बार वहाँ से साधुओं की एक टोली गुजर रही थी। उन्हें भी उन्होंने ने लूटने का प्रयास किया। उनमें से एक साधु ने उनसे पूछा, -"तुम यह पापकर्म किसके लिए करते हो?"
रत्नाकर ने उत्तर दिया- "अपने माता-पिता, पत्नी, बच्चों के लिए करता हूँ।"
साधु ने उनसे कहा- "क्या जिनके लिए यह पापकर्म तुम कर रहे हो, वे इसमें तुम्हारे भागीदार बनेंगे?"
रत्नाकर ने कहा- "वे मेरे अपने हैं, मैं उनके लिए कमाता हूँ, उनके लिए सारी सुख-सुविधाएँ जुटाता हूँ, वे मेरा साथ अवश्य ही देंगे।"
साधु ने कहा- "जाओ, उनसे पूछकर आओ।"
साधु की बात सुनकर रत्नाकर को क्रोध आ गया और वह बोला- "मैं उनसे पूछने घर जाऊँ ताकि तुम यहाँ से भाग जाओ।"
उसकी बात सुनकर साधु ने कहा- "हमें यहाँ बाँधकर चले जाओ।"
डाकू रत्नाकर साधुओं को बाँधकर घर गया और उसने अपने माता-पिता, पत्नी और बच्चों से बारी-बारी वही प्रश्न किया- " क्या तुम मेरी पाप कमाई का फल मेरे साथ भोगोगे?"
सभी ने एक ही उत्तर दिया- "हमें कोई मतलब नहीं कि तुम कैसे कमाते हो? हमारी सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करना तुम्हारा दायित्व है। हम सब तुम्हारे पापकर्म में भागीदार नहीं बनेंगे।"
यह रत्नाकर डाकू के जीवन का टर्निंग प्वाइंट था। वन में जाकर रोते हुए उसने साधुओं को खोला और उनके पैर पकड़ लिए। उन्हें ज्ञान मिल गया था कि पापकर्म का दुष्परिणाम मनुष्य को अकेले ही भुगतना पड़ता है। उस समय कोई भी उसका साथी नहीं बनता।
यह सत्य है। अपने आसपास ऐसी घटनाओं को हम देखते हैं। टी वी, समाचारपत्र हमें ऐसे दुष्परिणामों से अवगत कराते रहते हैं। फिर भी लोग हेराफेरी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, मारकाट आदि दुष्कर्म करने से बाज नहीं आते। उन्हें सावधान रहने की आवश्यकता है। जब इनका कुफल भोगना पड़ता है तब मनुष्य अकेला रह जाता है। कोई उसका कड़वा फल खाने के लिए तैयार नहीं होता। सारा कष्ट भोगता हुआ मनुष्य उस समय स्वयं को कोसता है। परन्तु तब कुछ नहीं हो सकता।
इसलिए समय रहते चेत जाना आवश्यक है अन्यथा प्रायश्चित करने के अतिरिक्त मनुष्य के पास कोई और चारा नहीं बचता।
चन्द्र प्रभा सूद
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