इस संसार में मुट्ठी बाँधे मनुष्य केवल खाली हाथ आता है। न वह धन-दौलत अपने साथ लेकर आता है और न ही ऐश्वर्य का साजो-सामान। उसे बन्धु-बान्धव भी इसी दुनिया में अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलते हैं। सारा जीवन वह उन सबको साथ लेकर चलने का यत्न करता रहता है। सबको प्रसन्न रखने का प्रयास करता है, परन्तु चाहकर भी वह अपने इस उद्देश्य में पूर्णतः सफल नहीं हो पाता।
जीवनभर मनुष्य दिन-रात एक करके अथक परिश्रम करता है तब जाकर वह प्रभूत धन कमा पाता है। तिनका-तिनका जोड़कर वह अपने लिए घर बनाता है, अपनी गृहस्थी बसता है। अपने कमाए हुए धन से वह संसार में विद्यमान सभी सुविधाओं को जुटाता है जिससे उसका और उसके परिवार का जीवन निर्वाह सुविधापूर्वक हो सके। वह चाहता है कि उसके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करके योग्य बने जाएँ और उच्च पद पर आसीन होकर उसका समाज में मान बढ़ाएँ। जब उसका यह सपना साकार हो जाता है तब उसके वे उच्च पदासीन बच्चे उसे छोड़कर कहीं अन्यत्र अपना बसेरा बना लेते हैं। वह उनकी याद में पलक पाँवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहता है।
अपने बन्धु-बान्धवों के साथ उसे खट्टे-मीठे अनुभव होते रहते हैं। उसका सारा जीवन उनके साथ सामञ्जस्य बिठाते हुए बीत जाता है। कभी कोई नाराज हो जाता है तो कभी कोई। मित्रों के दुर्व्यवहार पर उन्हें किनारे कर देना, उनसे मुँह मोड़ लेना अपेक्षाकृत आसान होता है। परन्तु अपने सम्बन्धियों से सदा के लिए दूरी बना सकना आसान नहीं होता। न चाहते हुए भी लोकलाज के कारण उन्हें त्याग नहीं जा सकता।
अपनी नौकरी या व्यवसाय करते समय भी वह सारा जीवन मानो शतरंज की बिसात ही बिछाए बैठा रहता है। जोड़तोड़ करते हुए ही उसका जीवन व्यतीत हो जाता है। अपने जीवन का अधिकांश समय जहाँ वह बिताता है, सहयोगियों के साथ अपने सुख-दुःख साझा करता है, वहाँ से एक निश्चित अवधि के पश्चात यानी रिटायरमेंट के बाद उसे वहाँ से बेगाना बना दिया जाता है। तब वह सोचता है कि अब मेरे पास पैसा है तो आराम से जी लूँगा।
इस समय उसका शरीर अशक्त होने लगता है, तो वह स्वयं को असहाय समझने लगता है। अपनी दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी उसे किसी-न-किसी के सहारे की जरूरत होने लगती है। वह इसी बात के लिए परेशान होता रहता है कि अब वह असमर्थ होने लगा है और इस धरती पर बोझ बनने लगा है। ईश्वर से बार-बार प्रार्थना करने लगता है कि वह जीना नही चाहता, उसे वह अब अपने पास बुला ले।
जीवन की भागमभाग से निवृत्त होकर जब इन्सान सोचता है कि अब वह शान्ति से रहेगा। अपनी सारी जिम्मेदारियों से वह मुक्त हो गया है और अब जीवन अपनी शर्तों पर जिएगा तो तभी वह मालिक घंटी बजा देता है। वह कहता है कि बेटा सब कामों से निपट गया है तो अब आ जा फिर। उसे कुछ पल अपनी इच्छा से जीने की मोहलत भी नहीं देता। जो धन-वैभव उसने सारा जीवन लगाकर जुटाया होता है, वह उसका भोग भी नहीं कर पाता। उसके लिए सब व्यर्थ हो जाता है।
मनुष्य न चाहते हुए भी अनिच्छा से कलपता हुआ परलोक की यात्रा के लिए चल पड़ता है। इसका कारण सुन्दर सृष्टि को छोड़कर वह नहीं जाना चाहता। जिस प्रकार वह खाली हाथ इस संसार में जन्म लेकर आता है, उसी प्रकार अपने खुले हाथों से इस दुनिया से विदा लेता है। मानो वह यह दिखाना चाहता हो कि मेरा जुटाया हुआ सारा वैभव इसी धरा पर राह गया है और मैं सब यहीं छोड़कर जा रहा हूँ। मेरे साथ यदि कुछ है तो मेरे सत्कर्म अथवा दुष्कर्म हैं जिनका भोग मुझे अगले जन्म में करना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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