मनीषी समझाते हैं चिन्ता मत करो। सांसारिक मनुष्यों के लिए यह कदापि सम्भव नहीं हो पाता। जीते जी मनुष्य को घर-परिवार, बच्चों की शिक्षा, उन्हें सेटल करना, उनके शादी-ब्याह, स्वास्थ्य, धन, लेनदेन, नौकरी-व्यापार आदि कई प्रकार की चिन्ताएँ हैं, जो उसे सताती रहती हैं। चिन्ताओं का मकड़जाल उसे चैन से बैठने नहीं देता। उससे बाहर निकलने के असफल प्रयास में वह छटपटाता रहता है। वह सारा समय घुलता रहता है और जानते-बूझते अपना स्वास्थ्य खराब कर लेता है।
चिन्ता चिता के समान होती है। चिता मरने के पश्चात ही जलाती है पर चिन्ता पल पल मनुष्य के जीवन को जलाती रहती है। इसी भाव को किसी कवि ने निम्न श्लोक में व्यक्त किया है -
चिता चिन्ता समाप्रोक्ता बिन्दुमात्रं विशेषता।
सजीवं दहते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता॥
अर्थात चिता और चिन्ता समान कही गयी हैं पर उसमें भी चिन्ता में एक बिन्दु की विशेषता है; चिता तो मरे हुए को ही जलाती है पर चिन्ता जीवित व्यक्ति को मार देती है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि चिन्ता मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। परन्तु चिन्ता करना भी तो एक अनवरत क्रम है। एक चिन्ता मनुष्य को घेरती है, जब उससे मुक्त होता है तो दूसरी उसकी राह ताक रही होती है। एक के बाद इन चिन्ताओं का क्रम उसे निश्चिन्त होकर नहीं बैठने देता। मनुष्य परेशान होता रहता है पर सुख की साँस लेना चाहता है। एक खुशी का पल तलाशना चाहता है।
किसी कवि ने निम्न श्लोकांश में बताने का प्रयास किया है -
मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणं
चिन्तासमं नास्ति शरीरशोषणम्।
अर्थात सन्तुलित जीवन के समान शरीर का पोषण करने वाला दूसरा कोई नहीं है। चिन्ता के समान शरीर को सुखाने वाला कोई दूसरा नहीं है।
सन्तुलित जीवन शैली से मनुष्य का शरीर पुष्ट होता है। यह चिन्ता दीमक की तरह मनुष्य के जीवन को नष्ट करती रहती है। इससे शरीर सूखने लगता है, इन्सान का चेहरा मुरझा जाता है। मनुष्य अपनी आयु से अधिक का दिखाई देने लगता है। यानी उसका शरीर नित्य गिरता जाता है। अनावश्यक ही कई बिमारियाँ उसे घेर लेती हैं। अपनी इस एक आदत से मनुष्य न स्वयं चैन से बैठता है और न ही अपने बन्धु-बान्धवों को। सभी उसकी नकारात्मक सोच से परेशान रहते हैं। सदा तनाव में रहने के कारण ऐसे लोग कभी-कभार अवसादग्रस्त भी हो जाते हैं।
ऐसे व्यक्ति को कितना भी समझा लो, चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह सब बेकार हो जाता है। जानते-बूझते भी वह अपनी इस आदत से मुक्त नहीं हो पाता। उनके पास बैठा व्यक्ति शीघ्र ही उनसे ऊब जाता है। फिर धीरे-धीरे लोग उनसे कन्नी काटने लगते हैं। सामने सहानुभूति दिखाते है परन्तु पीठ पीछे उनका उपहास करने से नहीं चूकते।
जब तक मनुष्य चिन्ता रूपी शत्रु पर नियन्त्रण नहीं कर लेता, उसे कष्ट उठाना ही पड़ता है। कुछ चिन्ताएँ होना स्वाभाविक हैं पर कुछ को मनुष्य स्वयं अपने लिए बुलाता है। जिन पर उसका वश नहीं चलता, उनके लिए उसे ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। वही उनको दूर करने की सामर्थ्य रखता है। और जो खुद उसकी बुलाई हुई चिन्ताएँ हैं उन पर उसे मनन करके उनसे मुक्त होने का प्रयास दृढ़ता से करना चाहिए। यदि फिर भी कहीं चूक रह जाए तो मनीषियों से परामर्श करना चाहिए। जीवन में प्रसन्नता चाहिए तो चिन्ता रूपी शत्रु पर किसी भी तरह विजय पानी होगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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