अपने हिस्से के दुःख और कष्ट मनुष्य को स्वयं अकेले ही झेलने पड़ते हैं। आप कह सकते हैं कि हमारा भरा-पूरा परिवार है, हम सदा अपने बन्धु-बान्धवों से घिरे रहते हैं। सभी हमारी परवाह भी करते हैं। फिर यह कथन तो उपयुक्त प्रतीत नहीं हो रहा है। मेरा यह कथन अपने-आपमें एक बहुत गहरा अर्थ समेटे हुए है। इस विषय पर विवेचना कर ली जाए तब इसका सार समझ पाना अपेक्षाकृत अधिक सरल हो जाएगा।
मनुष्य माँ के गर्भ में प्रवेश करने के बाद से जन्म तक अँधेरे और कष्ट का सामना अकेले ही करता है। उस दुःख से घबराकर ईश्वर से मुक्त होने की प्रार्थना करता है। फिर जन्म से मृत्यु तक अनेकानेक दुःख-तकलीफों से रूबरू होता हुआ जीवन व्यतीत करता है। अन्त में मृत्यु का सामना करता हुआ अकेला ही इस संसार से विदा ले लेता है।
मनीषी कहते हैं कि सुख बाँटने से बढ़ता है और दुःख भोगने से काटता है। आज की परस्थितियों में लोग अपने दुःख से दुखी नहीं होते अपितु दूसरों के सुख से व्यथित होते हैं। कोई खुश होता है तो उसकी प्रसन्नता कुछ लोग सहन नहीं कर पाते। उससे ईर्ष्या करते हैं और उसे चुटकी काटने अथवा सुई चुभोने से बाज नहीं आते। इसी तरह लोग दूसरों के दुःख को आग्रहपूर्वक सुनकर, मगरमच्छ वाले आँसू बहाने वाले सदा उसका उपहास उड़ाने की फ़िराक में लगे रहते हैं।
जिस भी व्यक्ति को शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट सहन करना पड़ता है, उसे ही पता होता है कि उसकी समस्या कितनी विकट है? अस्वस्थ व्यक्ति के चारों ओर कितने ही बन्धु-बान्धव खड़े हों, वे केवल सहानुभूति प्रदर्शित कर सकते हैं, सेवा कर सकते हैं, अच्छे-से-अच्छा इलाज करवा सकते हैं परन्तु उसके होने वाले कष्ट को किसी भी सूरत में बाँट नहीं सकते, काम नहीं कर सकते।
यह उनकी मज़बूरी ही कही जा सकती है कि अपने तड़पते हुए प्रियजन के लिए दुखी होने के अतिरिक्त वे और कुछ नहीं कर पाते, इस समय स्वयं को लाचार अनुभव करते हैं। यही कारण है कि मनुष्य इतनी भीड़ से घिरा होते हुए भी स्वयं को अकेला ही खड़ा पाता है। इन दुखों और परेशानियों से उसे अकेले ही जूझना पड़ता है, इसके अतिरिक्त उसके पास और कोई भी चारा नहीं बचता। इसी से मनुष्य की असहायता का अनुमान लगाया जा सकता है।
घर में खाने की मेज पर सजे स्वादिष्ट व्यञ्जन या किसी शादी-पार्टी में चाहे कई प्रकार के छप्पन भोग बने हों, परन्तु उस रोगी से उसकी स्थिति पूछिए जो केवल उन्हें टुकुर-टुकुर देख सकता है, खा नहीं सकता। सब कुछ होते हुए भी जो खाने से लाचार है, वही उन सबसे वञ्चित है और कोई नहीं। कोई भी उसके इस दुःख का भागीदार नहीं बन सकता। उसे सांत्वना देने के अतिरिक्त और किया भी क्या जा सकता है?
अस्पताल के आई सी यू में पीडीए या आपरेशन की टेबल पर पड़े प्रियतम का साथ भी दरवाजे तक ही दिया जा सकता है। उसके आगे की यात्रा उसकी अपनी ही होती है। किसी रोग के कारण चलने-फिरने से लाचार व्यक्ति को अपने अकेलेपन का स्वयं ही सामना करना पड़ता है। सारा समय यानी चौबिसौ घण्टे उसके साथ जुड़कर कोई नहीं बैठ सकता, क्योंकि सभी को अपने-अपने कार्य करने होते हैं।
कुछ लोग जन्म से ही रोगी पैदा होते हैं। उन्हें लोग कर्मरोगी कहते हैं और उनके रोग को कर्मरोग कहकर अपने कर्तव्य की इति कर लेते हैं। वे आयुपर्यन्त अपने इस रोग के बोझ में दबे हुए जीते हैं। जीवनभर ही वे लोगों की सहानुभूति का पात्र बने रहते हैं।
शुभाशुभ कर्म करते समय मनुष्य यह भूल जाता है कि एक दिन उसे उन सब कृत कर्मों का भुगतान करना पड़ता है। उनका फल भोगने के समय बहुत ही कष्ट होता है। तब मनुष्य परम न्यायकारी ईश्वर पर पक्षपात करने का आरोप लगाने लगता है। अपने ही भाई-बन्धुओं को कोसता है, ग़ाली-गलौच करता है। उसे सारी दुनिया अपनी दुश्मन प्रतीत होती है।
मनुष्य को सदा ही सावधानीपूर्वक अपना कर्म करते रहना चाहिए, जिससे उसे इन दारुण दुखों से दो-चार न होना पड़े और उसे इनसे मुक्ति मिल सके।
चन्द्र प्रभा सूद
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