संसार में विविध प्रकार के जलचर, भूचर और नभचर आदि असंख्य जीव-जन्तु हैं और उतने ही उनके शरीर हैं। जीव को यह शरीर परमपिता परमात्मा ने उपहार स्वरूप दिया है। अब प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर ने यह शरीर इन जीवों को क्यों दिया गया है? जीव जिसे ईश्वर का ही अंश कहा जाता है, वह कहाँ रहता है? इस जीव का शरीर के साथ क्या सम्बन्ध है?
आत्मा और शरीर के इस परस्पर सम्बन्ध को ग्रन्थों और मनस्वियों ने अपने अपने ढंग से सरल तरीके से समझाने का प्रयास किया है ताकि साधारण मनुष्य भी इस रहस्य को सहजता से समझ सके। इस गम्भीर सार से सम्बन्धित उसकी जिज्ञासा का शमन हो सके। आत्मा और शरीर की तुलना मनीषियों ने अपनी-अपनी समझ के अनुसार की है। उनके विशलेषण के सम्बन्ध में अब चर्चा करते हैं।
कठोपनिषद् में ऋषि ने बहुत ही सुन्दर उदाहरण देते हुए मनुष्य को बोध कराने का यत्न किया है। उन्होंने शरीर को एक रथ मानते हुए आत्मा को यात्री बताया है। यह सारा प्रपञ्च आत्मा रूपी यात्री को इस संसार सागर से पार ले जाने के लिए ही रचा गया है। निम्न श्लोक में इसु भाव को प्रस्तुत किया है -
आत्मानं रथं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च॥
अर्थात आत्मा को रथी यानी रथ का स्वामी मानो, रथ को उसका शरीर, बुद्धि को सारथी और मन को लगाम समझो।
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में अनेकश: इस गूढ़ विषय पर प्रकाश डालकर मानव मन की गुत्थी सुलझाने का प्रयास किया है। उन्होंने इस विषय का सरलीकरण करते हुए, जीवात्मा के शरीर परिवर्तन की तुलना वस्त्र परिवर्तन से करके सबको चमत्कृत कर दिया है-
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि असंयाति नवानि देही॥
अर्थात जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है। उसी प्रकार आत्मा पुराने रोगी शरीरों का त्याग करके नए शरीर धारण करता है।
इस शरीर को कुछ मनीषी नौका मानते हैं जो संसार सागर में हिचकोले खाती रहती है। उस पर सवार आत्मा को पर ले जाने का यत्न करती है।
कुछ विद्वान इस शरीर को पिंजरे की संज्ञा देते हैं। इस पिंजरे में पक्षी रूपी आत्मा निवास करती है। कुछ विद्वान इस आत्मा को तोते की संज्ञा देते हैं। यानी शरीर रूपी पिंजरे में आत्मा एक कैदी की तरह रहती है। उनका मानना है कि जब समय आता है तब यह आत्मा रूपी पक्षी पिंजरा तोड़कर पलक झपकते ही उड़ जाता है। उस वक्त पक्षी ढूँढे से भी नहीं मिलता और पिंजरा
खाली पड़ा रह जाता है।
अन्य विद्वान इस शरीर को अयोध्या नगरी मानते हैं। इस शरीर में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, हृदय, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्त्राधार नामक आठ चक्र हैं तथा दो आँखें, दो कान, दो नासिका छिद्र, मुँह, गुदा और उपस्थ नौ द्वार है। इनके अतिरिक्त एक अन्य दसवाँ द्वार ब्रह्मरन्ध्र है। इनमे से किसी द्वार से निकलकर जीव परलोक गमन करता है। तब यह अयोध्या नगरी अपने राजा से विहीन हो जाती है।
विद्वान मनीषी आत्मा और शरीर को किसी भी रूप में मानें परन्तु सच्चाई यही है कि यह शरीर रूपी साधन जीव को उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उसे सीमित समय के लिए मिलता है। उसके पश्चात इस पञ्चभौतिक शरीर को छोडकर उसे परलोक की यात्रा के लिए प्रस्थान करना ही पड़ता है। तदनन्तर यह शरीर मिट्टी की तरह होता जिसे अपने प्रियजन ही अग्नि के हवाले कर देते हैं।
इस कथ्य का सार यही हैं कि यह शरीर जीव को साधन के रूप में मिला है परन्तु जीव शरीर को साध्य मानकर इसे सजाने-सँवारने में इतना व्यस्त हो जाता है कि वह अपने संसार में आने के उद्देश्य को मानो ताक पर सजा देता है। वह भूल जाता है कि उसका लक्ष्य परमपिता परमात्मा में एकाकार हो जाना होता है। तभीआत्मा को जन्म-मरण और चौरासी लाक्ष योनियों के आवागमन से मुक्ति मिल सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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