यह संसार यज्ञमय है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि संसार एक हवन कुण्ड के समान है और मनुष्य का जीवन पूजा की भाँति है। एक दिन इस हवन कुंड में सर्वस्व होम हो जाना होता है। मनुष्य बस जोड़-जोड़कर रखता जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि कब उसका अन्तकाल आ जाता है अथवा उसका बुलावा आ गया और इस संसार से उसे विदा लेनी पड़ रही है।
सभी लोग हवन की इस प्रक्रिया से परिचित हैं। अपने घर में प्रायः सभी लोग किसी-न-किसी अवसर पर हवन करवाते रहते हैं। हवन में सम्मिलित लोगों के समक्ष हवन-सामग्री रख दी जाती है। पंडित जी मन्त्र पढ़ते जाते हैं और 'स्वाहा' शब्द का उच्चारण करते हैं और लोग उस प्रज्वलित अग्नि में हवन-सामग्री डालते रहते हैं। पंडित जी के स्वाहा कहते ही हवनकर्ता अग्नि में घी की आहुति डाल देता है।
हर व्यक्ति इस आशंका थोड़ी सामग्री डालता है कि कहीं हवन खत्म होने से पहले सामग्री खत्म न हो जाए, गृह मालिक भी घी खत्म न हो जाए इस डर बून्द-बून्द करके घी डालता। हवन की समाप्ति के पश्चात भी सबके पास बहुत-सी हवन सामग्री बची रह जाती है। हवन पूरा होने के बाद पंडित जी बची हुई सामग्री और घी को अग्नि में डालने का निर्देश देते हैं। तब सारी सामग्री को कुण्ड में डाल दिया जाता है।
जब बची हुई बहुत-सी हवन-सामग्री और घी अग्नि में एक साथ डाल दिया जाता है तब पूरा घर धुँए से भर जाता है। जब तक वह सारी सामग्री जल नहीं जाती, तब तक वहाँ बैठना कठिन हो जाता है। उस स्थान पर पुनः जाना भी संभव नहीं हो पाता। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में काफी समय लग जाता है। धुआँ छँट जाने तक वहाँ प्रतीक्षा करनी होती है।
हवन में मौजूद हर व्यक्ति को यह भली-भाँति ज्ञात होता है कि जितनी हवन-सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुण्ड में ही डालना होता है। उसे बचाने का कोई लाभ नहीं होता। फिर भी सभी लोग उस सामग्री को ऐसे बचाते हैं जैसे वह बाद में काम आएगी। इसी तरह हम सबकी यही फितरत है कि अपने अन्तकाल के लिए बहुत कुछ बचाकर रखना चाहते हैं, चाहे उसका उपभोग अपने इस जीवनकाल में कर पाएँ अथवा नहीं।
इसी प्रकार हर मनुष्य को ज्ञात है कि वह इस संसार सें सदा के लिए नहीं आया अपितु अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार निश्चित समय के लिए आया है। फिर समयानुसार अन्ततः उसके इस जीवन की पूजा भी समाप्त हो जानी होती है और सारी धन-दौलत रूपी यह हवन-सामग्री बची रह जाती है। जीवन भर अनथक परिश्रम करके कमाता है और खर्च करने से पहले दस बार सोचता है। फिर इसे बचाने के चक्कर में मनुष्य इतना अधिक खो जाता है और भूल जाता है कि बची हुई वह धन-दौलत बाद में केवल धुँआ ही उड़ायेगी। यानी बच्चों में लड़ाई-झगड़े और अपमान का कारण बनेगी।
जिस वैभव को कमाने के लिए वह सारे कर्म-कुकर्म करता है, पाप-पुण्य करता है और छल-फरेब करता है, उसे भी अपने साथ परलोक नहीं ले जाता। अपितु इसी पृथ्वीलोक पर छोड़ जाता है। उसे पाकर उसके बच्चे भी सन्तुष्ट नहीं हो पाते। बच्चों को कितना भी क्यों न दे जाओ, उन्होंने तो बस यही कहना होता है कि माता-पिता ने हमारे किया क्या है?
इससे भी बढ़कर समस्या तब होती है जब उस धन-सम्पत्ति को पाने के लिए बच्चे आपस में एक-दूसरे का सिर फोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। भाई- बहन भी परस्पर शत्रु बन जाते हैं। एक-दूसरे का चेहरा तक नहीं देखना चाहते। इसे पाने के लिए वे कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाते फिरते हैं। यानी कि घर-परिवार में धुआँ व्याप्त हो जाता है।
इस सबको लिखने का यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि मनुष्य विपुल धन-वैभव न कमाए और सोचता रहे। उसे खूब कमाना चाहिए और अपने घर-परिवार के सभी दायित्वों को पूर्ण करना चाहिए। खाने-खर्चने के बाद जो कुछ बचे उसे अपने जीवन की धूप-छाँव के लिए बचाकर रखना चाहिए। मनुष्य को धन-सम्पति पर साँप की तरह कुण्डली मारकर नहीं बैठना चाहिए। मनुष्य को अपनी वृद्धावस्था के विषय में विचार करते हुए अपने जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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