चम्पावत के देवीधूरा नामक जगह पर मां वाराही का प्रसिद्ध मन्दिर है. हर साल रक्षाबन्धन के दिन यहां विशाल मेला लगता है. इस मेले का मुख्य आकर्षण दो गुटों के बीच होने वाला पाषाण युद्ध है. कहा जाता है कि प्राचीन समय में यहां मानव बलि का प्रचलन था. एक बार किसी वृद्ध महिला के इकलौते पुत्र की बलि होनी थी तो महिला ने माता की आराधना करके उन्हें इस बात के लिये मनालिया कि हर साल पत्थर युद्ध के द्वारा माता को एक मानव के रक्त की मात्रा चढायी जायेगी. इस तरह यह परंपरा हर साल अनवरत रूप से चली आ रही है. इस युद्ध मेंशामिल होने वाले लोगों को कई दिन पहले से विशेष रूप से शुद्ध खान-पान और आचरण का पालन करना पङता है.इस विषय पर अधिक जानकारी इस टापिक पर उपलब्ध करायी जायेगी.
पंकज सिंह महर:बग्वाल मेला अपने पाषाण युद्ध के कारण प्रसिद्ध है, यह श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है और इसी दिन रक्षाबंधन का भी त्यौहार होता है। इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे, पहले हम मां वाराही देवी के बारे में जानते हैं-मां वाराही देवी(देवीधूरा)देवीधूरा में वाराही देवी मंदिर शक्तिके उपासकों और श्रद्धालुओं के लिये वह पावन और पवित्र स्थान है, जहां पहुंचते ही अलौकिक आनन्द की अनुभूति होती है। दैविक शक्ति से यहां पहुंचने वाले लोगों को रोग, दोष व विपदाओं से निजात मिल जाती है। यह क्षेत्र देवी का उग्र पीठ माना जाता है और इसे पूर्णागिरी कीतरह ही माना जाता है। समुद्र की सतह से लगभग २००० फीट की ऊंचाई पर स्थित इस प्राचीन एवं ऎतिहासिक स्थल से कई पौराणिक कथायें भी जुड़ी हैं।चन्द राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ में चम्पा देवी और ललत जिह्वा महाकाली की स्थापना की गई थी। तब लाल जीभ वाली महाकाली को महर और फर्त्यालो द्वारा बारी-बारी से प्रतिवर्ष नियमित रुप से नरबलि दी जाती थी।
बताया जाता है कि रुहेलों के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा वाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक भवन में स्थापित कर दिया गया था। धीरे-धीरे इसके चारोम ओर गांव स्थापित हो गये और यह मंदिर लोगों की आस्था का केन्द्र बन गया। बताया जाता है कि पहाड़ी के छोर पर खेल-खेल में भीम ने शिलायें फेंकी थी, ग्रेनाइट की इन विशाल शिलाओं में से दो शिलायें आज भी मन्दिर के निकट मौजूद हैं। जिनमें से एक को राम शिला कहा जाता है, इस पर’पचीसी’ नामक जुए के चिन्ह आज भी विद्यमान हैं। जन श्रुति है कि यहां परपाण्डवों ने जुआ खेला था, उसी के समीप दूसरी शिला पर हाथों के भी निशान हैं।पंकज सिंह महर:इक्कीसवीं सदी में पाषाण युद्ध-बी०बी०सी० संवाददाता शालिनी जोशी की एक रिपोर्टदुनिया में जब इंसानी ज़िंदगी शुरू हुई तो इंसान के हाथ में एक पत्थर था. पेट भरने और अस्तित्व को बनाए रखने के संघर्ष के दरम्यान इंसान ने उस पत्थर को हथियार बनाया और जल्द ही औज़ार भी. आदमी और पत्थर की ये दोस्ती सभ्यताओं के विभिन्न दौर से गुजरती हुई इक्कीसवीं सदी के इस मशीनी युग में भी क़ायम रह सकती है- इस बात पर यकीन नहीं आता.लेकिन भारत के पहाड़ी राज्य उत्तरांचलके चंपावत ज़िले के देवीधुरा कस्बे में आज भी आदिम सभ्यता जीवंत हो उठती है जब लोग ‘पाषाण युद्ध’ का उत्सव मनाते हैं. एक-दूसरे पर निशाना साधकर पत्थर बरसाती वीरों की टोली, इन वीरों की जयकार और वीर रस के गीतों से गूंजता वातावरण, हवा में तैर रहे पत्थर ही पत्थर और उनकी मार से बचने के लिये हाथों में बांस के फर्रे लिये युद्ध करते वीर.
आस-पास के पेड़ों, पहाड़ों औऱघर की छतों से हजारों लोग सांस रोके पाषाण युद्ध के इस रोमांचकारी दृश्य को देख रहे हैं. कभी कोई पत्थर की चोट सेघायल हो जाता है तो फौरन उसे पास ही बने डॉक्टरी कैंप में ले जाया जाता है. युद्धभूमि में खून बहने लगता है, पत्थर की बौछार थोड़ी देर के लिये धीमी जरूर हो जाती है लेकिन ये सिलसिला थमता नहीं. हर साल हजारों लोग दूर-दूर से इस उत्सव में शामिल होने आते हैं.आस-पास के गांवों में हफ़्तों पहलेसे इसमें भाग लेने के लिये वीरों और उनके मुखिया का चुनाव शुरू हो जाता है. अपने-अपने पत्थर और बांस की ढालें तैयार कर लोग इसकी बाट जोहने लगते हैं. चमियाल टोली के मुखिया गंगा सिंह बिष्ट कहते हैं,"सब चाहते हैं कि उनकी टोली जीते लेकिन साथ ही जिसका जितना खून बहता है वो उतना ही ख़ुशक़िस्मत भीसमझा जाता है. इसका मतलब है कि देवी ने उसकी पूजा स्वीकार कर ली."बग्वाल यानी पाषाण युद्ध की ये परंपरा हजारों साल से देवीधूरा में चली आ रही है.
मान्यता है कि बाराही देवी को मनाने के लिए ही ये खेल किया जाता है. पहले यहाँ आदमी की बलि दी जाती थी. लेकिन जब एक वृद्धा के इकलौते पोते की बारी आई तो उसने उसे बचाने के लिये देवी से प्रार्थना की. देवी उसकी आराधना से खुश हुई और उसके पोते को जीवनदान दिया लेकिन साथ ही शर्त रखी किएक व्यक्ति के बराबर ख़ून उसे चढ़ाया जाए. तभी से पाषाण युद्ध में खून बहाकर देवी को प्रसन्न किया जाता है." पुजारी जयदत्तकिंवदंतीमंदिर के पुजारी जयदत्त इसके महत्त्व के बारे में बताते हैं, "पहले यहाँ आदमी की बलि दी जाती थी. लेकिन जब एक वृद्धा के इकलौते पोते की बारी आई तो उसने उसे बचाने के लिये देवी से प्रार्थना की. देवी उसकी आराधना से खुश हुई और उसके पोते को जीवनदान दिया लेकिन साथ ही शर्त रखी कि एक व्यक्ति के बराबर ख़ून उसे चढ़ाया जाए. तभी से पाषाण युद्ध में खून बहाकर देवी को प्रसन्न किया जाता है." आज भी जब पुजारी संतुष्ट हो जाता है कि एक व्यक्ति के बराबर ख़ून बह गया तभी बग्वाल का समापन होता है. पुजारी के शँखनाद के साथ ही जैसे ही इस युद्ध का समापन होता है सभी टोलियों केलोग एक-दूसरे से गले मिलकर खुशी मनाते हैं और घायलों की कुशलक्षेम पूछते हैं.सैलानियों के बीच भी बग्वाल का आकर्षण बढ़ता जा रहा है.दिल्ली,मुंबई,हरियाणा,पंजाब के साथ-साथ बड़ी संख्या में विदेशी भी इस अनोखे युद्ध को देखने इस समय यहां आते हैं.यूरोप से आईं कैथलीन कहती हैं," पत्थरों की इस तूफ़ानी बरसात से डर भी लगता है लेकिन सबसे ज्यादा कौतूहल की बात ये है कि लोगों को चोट आती है, गिरतेहैं लेकिन फिर इस खेल में शामिल हो जाते हैं".पंकज सिंह महर:बगवाल : देवीधुरा मेलादेवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है ।
मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित कियागया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।इतिहासकारों का मानना है कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्धमें प्रवीण थी तथा जिसने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था । ऐसी स्थिति में पत्थरों के युद्ध की परम्परा का समय काफी प्राचीन ठहरता है । कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं शती ई. से प्रारम्भ मानते हैं । कुछ खास जाति से भी इसे सम्बिन्धित करते हैं ।
बगवाल को इस परम्परा को वर्तमान में महर और फव्यार्ल जाति के लोग ही अधिक सजीव करते हैं । इनकी टोलियाँ ढोल, नगाड़ो के साथ किंरगाल की बनी हुई छतरी जिसे छन्तोली कहते हैं, सहित अपने-अपनेगाँवों से भारी उल्लास के साथ देवी मंदिर के प्रांगण में पहुँचती हैं । सिर पर कपड़ा बाँध हाथों में लट्ठ तथा फूलों से सजा फर्रा-छन्तोली लेकर मंदिर के सामने परिक्रमा करते हैं । इसमें बच्चे, बूढ़े, जवान सभी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं । बगवाल खेलने वाले द्यौके कहे जाते हैं । वे पहले दिन से सात्विक आचार व्यवहार रखते हैं । देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है । फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में पुष्पों की व्यवस्था करते हैं । मनटांडे और ढ़ोलीगाँव के ब्राह्मण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों� पर पूजन करवा सकते हैं । भैंसिरगाँव के गढ़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं ।बगवाल का एक निश्चित विधान है । मेले के पूजन अर्चन के कार्यक्रम यद्यपि आषाढि कौतिक के रुप में एक माह तक लगभग चलते हैं लेकिन विशेष रुप से श्रावण माह की शुक्लपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद कष्णपक्ष की द्वितीया तिथि तक परम्परागत पूजन होताहै ।
बगवाल के लिए सांगी पूजन एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रुप से पूर्व से ही सम्बन्धित चारों खाम (ग्रामवासियों का समूह) गढ़वाल चम्याल,वालिक तथा लमगडिया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मंदिर में रखा देवी विग्रह एक सन्दुक में बन्द रहता है । उसी के समक्ष पूजन सम्पन्न होता है । यही का भार लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंपा जाता है । जिनके पूर्वजों ने पूर्व में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाने में अपूर्व वीरता दिखाई थी । इस बीच अठ्वार का पूजन होता है । जिसमें सात बकरे और एक भैंस का बलिदान दिया जाता है ।पूर्णिमा को भक्तजनों की जयजयकार के बीच डोला देवी मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है । चारों खाम के मुखिया पूजन सम्पन्न करवाते है । गढ़वाल प्रमुख श्री गुरु पद से पूजन प्रारम्भ करते है । चारों खामों के प्रधान आत्मीयता, प्रतिद्वेंदिता, शौर्य के साथ बगवाल के लिए तैयार होते हैं ।द्यीकों के अपने-अपने घरों से महिलाये आरती उतार, आशीर्वचन और तिलक चंदन लगाकर हाथ में पत्थर देती हैं।(संकलित)