सुन्दरता आन्तरिक होनी चाहिए बाह्य नहीं। भौतिक अथवा शारीरिक सौन्दर्य क्षणिक होता है। मनुष्य का रंग-रूप, उसका शारीरिक सौष्ठव, उसकी कद-काठी, उसके नैन-नक्श आदि बाह्य सौन्दर्य को दर्शाने वाले होते हैं।
हम अपने भारत देश को एक छोटे विश्व के रूप में देख सकते हैं। यहाँ गोरे-से-गोरे और काले-से-काले, मोटे-पतले, लम्बे-नाटे आदि सभी प्रकार के लोग मिल जाएँगे। अब प्रश्न यह उठता है कि जब इतनी विविधता है तो सुन्दरता का पैमाना क्या होगा?
सभी लोगों का सुन्दरता को जाँचने का नजरिया अलग-अलग हो सकता है। जिन देशों में लोग काले होते हैं, वे उसी के अनुरूप सुन्दरता को देखते हैं। जिन देशों में लोग गोरे होते हैं उनका पैमाना तथावत् बन जाता है। इसी प्रकार लम्बे या नाटे होने की भी कसौटी हो सकती है।
ये सब लिखने का तात्पर्य यही है कि शारीरिक सौन्दर्य को मापने का सबका अपना-अपना निकष होता है। फिर भी यदि हम यह कहें कि आकर्षक व्यक्तित्व सभी को अपनी ओर आकृष्ट करता है। ईश्वर ने हर प्रजाति में मादा को सुन्दर बनाया है। इसका अपवाद केवल मोर पक्षी है जो अपनी मादा मोरनी से कही अधिक सुन्दर होता है।
इस संसार में बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपने रूप-सौन्दर्य पर गर्व करते हैं। वे भूल जाते हैं कि यह भौतिक सौन्दर्य सदा साथ नहीं निभाता। शरीर के रोगी हो जाने पर अथवा चेचक आदि बिमारी के आ जाने पर चेहरा पूर्ववत् सुन्दर नहीं रह सकता। एक आयु के बाद जब इन्सान वृद्धावस्था की ओर कदम बढ़ाता है तब झुरियाँ आ जाने के कारण भी सुन्दरता कहीं खो सी जाती है।
इसलिए अस्थायी सुन्दरता पर घमण्ड करना मनुष्य को कदापि शोभा नहीं देता। अपने बाहरी रूप-सौन्दर्य का गर्व न करके मनुष्य को अपने आन्तरिक गुणों को बढ़ाने पर अधिक ध्यान देना चाहिए। अपने गुणों को अथवा योग्यता का मनुष्य जितना अधिक विस्तार करता है उतना ही वह सबका प्रिय बनता है। मनुष्य के पास भरपूर सौन्दर्य हो परन्तु वह मूर्ख हो तो कोई उससे मित्रता करना पसन्द नहीं करेगा। इसी प्रकार मनुष्य के मुँह खोलते ही उसका फूहड़पन सामने आ जाए तब भी वह किसी का प्रिय कभी नहीं बन सकता।
बाहरी सौन्दर्य का आकर्षण तभी तक रहता है जब तक मनुष्य के अवगुण प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते। यदि उसमें योग्यता है और शारीरिक सुन्दरता नहीं है तब भी लोग उसके दीवाने बन जाएँगे। बालक अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था पर बालपन से ही वह प्रकाण्ड पण्डित था, उसकी कुरूपता को अनदेखा करके लोग उसकी विद्वत्ता का लोहा मानते थे।
मेरे कथन का यही अर्थ है कि भौतिक सुन्दरता भले ही सबको आकर्षित करती है परन्तु उसी सौन्दर्य को मान्यता तभी मिल पाती है जब उसमें गुणों का सम्मिश्रण हो अन्यथा उस सुन्दरता का कोई मोल नहीं रह जाता। उस व्यक्ति को कोई घास नहीं डालता। उसके व्यवहार और बोलने के लहजे के कारण उससे दूरी बनाना लोग अधिक पसन्द करते हैं।
मनुष्य के आन्तरिक गुण यानि दया, सहानुभूति, परोपकार, सहृदयता और ज्ञान आदि गुण उसे सबका सिरमौर बनाते हैं। ये गुण ही मनुष्य का वास्तविक सौन्दर्य कहलाते हैं जो भौतिक सौन्दर्य को कहीं पीछे छोड़ देते हैँ। बाह्य भौतिक सौन्दर्य के साथ यदि आन्तरिक सौन्दर्य भी हो तो वह सोने पर सुहागे का कार्य करता है। ऐसे व्यक्ति को लोकप्रिय होने से कोई शक्ति नहीं रोक सकती।
अन्त में इतना ही कहना है कि अपने अंतस् में मानवोचित गुणों और सदाचरण का इतना विस्तार करना चाहिए कि हर व्यक्ति मित्रता करने के लिए अथवा साथ जुड़ने के लिए लालायित हो जाए। तभी आन्तरिक सौन्दर्य बाहरी सौन्दर्य पर भारी पड़ सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp