घर पर अतिथि यदि कुछ समय के लिए आते हैं तो बहुत अच्छा लगता है। उनके साथ अपनी यादें ताजा करके या भाई-बन्धुओं की खैरियत जानना रुचिकर लगता है। अतिथि यदि अपनी पसन्द के हों तो उनके साथ हमारा मन लगता है। मनचाहे अतिथि वे होते हैं जो हमारे मित्र होते हैं, बहुत ही प्रिय भाई-बन्धु होते हैं या जिनसे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है। बच्चों के अपने मित्र यदि आते हैं तो उनके साथ वे घण्टों खेल सकते हैं। पर यदि उनका नापसन्द बच्चा आ जाए तो वे अपने खिलौने तक छुपा देते हैं। उसके जाने की प्रतीक्षा करते हैं।
यहाँ यह चर्चा करना आवश्यक है कि हमें कैसे अतिथि अच्छे लगते हैं? हर व्यक्ति चाहता है कि यदि अतिथि घर पर आएँ तो वे नाश्ता आदि खाकर, कुछ घण्टे व्यतीत करके वापिस चले जाएँ। ऐसे अतिथियों के आने से घर की व्यवस्था नहीं बिगड़ती। अपने प्रिय मित्र अथवा सम्बन्धियों के घर आने से सबको अच्छा लगता है। जिन आने वालों के बच्चे उद्दण्ड होते हैं, घर आते ही उठापटक करने लगते हैं या मारपीट पर उतारू हो जाते हैं, वे कितने भी करीबी हों उन्हें कोई भी नहीं पसन्द करता। सबसे बड़ी बात कि शहरों में छोटे-छोटे घर होते हैं, इस कारण किसी के लिए अपने घर में रहने का स्थान निकल पाना बहुत कठिन हो जाता है। आजकल बच्चों और बड़ों सबको प्राइवेसी चाहिए होती है।
परन्तु जब अतिथि अपनी सीमा भूल जाते हैं तो वे जी का जंजाल बन जाते हैं। उस समय बहुत ही वितृष्णा होती है। ऐसे अतिथियों से हर गृहस्थ का वास्ता पड़ता रहता है। अतिथि हैं इसलिए उन्हें कुछ कहना अपने कुल की मर्यादा के विपरीत लगता है और उन्हें सहन करना उससे भी कठिन लगने लगता है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर अतिथि की मर्यादा क्या होती है?
अतिथि की मर्यादा यही है कि उसे आतिथेय के घर के मामलों में दखल नहीं देनी चाहिए। जहाँ तक हो सके उसे घर के सदस्यों की जासूसी नहीं करनी चाहिए और न ही एक-दूसरे के विरुद्ध उन्हें भड़काना चाहिए। इससे उस अतिथि का सम्मान नष्ट होता है। घर के लोग उससे शीघ्र कन्नी काटने लगते हैं। इसके अतिरिक्त घर के बच्चों के साथ उसे समय बिताना चाहिए, उसके लिए उपहार स्वरूप कुछ लेकर आना चाहिए। जितने दिन किसी के घर में रहे, उसे बच्चों के लिए प्रतिदिन कुछ-न-कुछ खरीदकर भी लाना चाहिए।
आजकल प्रायः घरों में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी या व्यापार करते हैं। उन लोगों के पास समय का अभाव होता है। इसलिए उनसे उसे अधिक अपेक्षाएँ नहीं रखनी चाहिए कि वे अपना कार्य छोड़कर उसके साथ चौबीसों घण्टे बैठे रहेंगे। उसे उन्हीं के अनुसार ही अपनी उसे अपनी दिनचर्या बनानी चाहिए। उन पर किसी प्रकार का अनावश्यक दबाव नहीं बनाना चाहिए।
कक्षा नवम की हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में व्यंग्यकार श्री शरद जोशी का लिखा व्यंग्य 'तुम कब जाओगे, अतिथि' में इसी विषय पर लिखा गया है। इसे पढ़कर पता चलता है कि अतिथि के आने पर जो उत्साह होता है, वह समय बीतते समाप्त हो जाता है। मेजबान उसके जाने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। उनका पल-पल बिताना कठिन हो जाता है। उसके आतिथ्य के लिए जो थ्री या फोर कोर्स खाना पहले दिन बनाया जाता है, धीरे-धीरे वह खिचड़ी में बदल जाता है। आतिथेय और अतिथि के बीच समय बीतते अबोलापन आने लगता है। घर में यदि कोई अतिथि आ जाता है तब जेब पर भी बोझ पड़ता है। अतिथि को बस तिरस्कृत करके घर से निकलने की कसर बच जाती है।
अतिथि के विषय में शरद जी के विवरण संक्षेप में प्रस्तुत किया है। हमारे शास्त्र 'अतिथिदेवो भव' कहकर हमें संदेश देते हैं कि अतिथि को भगवान मानकर उसे सम्मान दो। भारतीय संस्कृति में बिना सूचना दिए आने वाले को अतिथि कहते हैं। आज के युग में फोन की सुविधा होने तथा भागदौड़ वाली जिन्दगी के कारण किसी के घर पर बिना सूचना के आना सम्भव नहीं हो पाता। साथ ही एकल परिवारों की अधिकता के कारण हर समय घर पर कोई उपलब्ध रहेगा ऐसा आवश्यक नहीं होता। पहले संयुक्त परिवार होते थे तो घर पर कोई-न-कोई सदस्य मिल ही जाया करता था। घर के सभी सदस्यों को मिल-जुलकर अतिथि का सत्कार करने में कठिनाई नहीं होती थी।
अन्त में यही कहना चाहूँगी की आतिथेय खुले मन और गर्मजोशी से अतिथि का सत्कार करे, इसके लिए अतिथि को भी अपनी मर्यादा को नहीं भूलना चाहिए। तभी दोनों में मधुर सम्बन्ध बने रह सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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