मनुष्य का बुद्धिहीन अथवा मन्दबुद्धि होना अलग बात है और मूर्ख होना अलग विषय है। बुद्धिहीन मनुष्य तो दुर्भाग्यशाली होता है, तभी मानव का तन पाकर भी वह अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अपनी बुद्धि का उपयोग नहीं कर पाता। परन्तु मूर्ख वह कहलाता है जो अपनी बुद्धि होते हुए भी उसका प्रयोग करना ही नहीं चाहता। जो कोई उसे जैसा कहता है, उसे ही ब्रह्मवाक्य मानकर उसी राह पर चलने लगता है।
आँख रहते हुए भी जानबूझकर यदि कोई गड्डे में गिरना चाहे या पहाड़ की ऊँचाई से कूदना चाहे, दूसरों के चेतावनी देने पर यदि कोई आग में अपना हाथ जलाने से न माने तो वह व्यक्ति मूर्ख ही कहलाएगा। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मूर्ख व्यक्ति अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने का काम करता है और फिर नुकसान उठता है।
ऐसे व्यक्ति का अपना कोई स्वतन्त्र मत नहीं होता, वह तो बस यही प्रतीक्षा करता रहता है कि कोई आए और उसका हाथ पकड़कर उसे उसके लक्ष्य तक पहुँचा दे। ऐसे मूर्ख सर्वत्र उपहास का पात्र बनते हैं। लोग उनका प्रयोग कठपुतली की तरह करते हैं जिसका उन्हें भान तक नहीं हो पाता। उन्हें व्यर्थ ही यह प्रतिभासित होता हे कि लोग उन्हे देखकर प्रसन्न होते हैं। जबकि वे उसका उल्लू बना रहे होते हैं। वे अपने शत्रु स्वयं होते हैं। वास्तव में किसी मूर्ख को समझदार बनाना खाला जी का घर नहीं अपितु टेढ़ी खीर है। उनके साथ माथा पच्ची करना, उन्हें समझाना वास्तव में अपना ही समय बरबाद करना होता है। वे तो चिकने घड़े होते हैं, उन पर किसी की भी अच्छी बात का कोई असर नहीं होता।
शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक्छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रो निशिताङ्कुशेन समदो दण्डेन गोगर्दभौ।
व्याधिर्भेषजसङ्ग्रहैश्च विविधैर्मन्त्रप्रयोगैर्विषं सर्व- स्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम्॥
अर्थात आग को जल से बुझा सकते हैं, सूर्य के ताप को छाते से रोका जा सकता है, मतवाले हाथी को अंकुश से वश में किया जा सकता है, पशुओं को डण्डे के बल से वश में किया जा सकता है, रोग औषधियों से शान्त हो सकता है, विष को भी अनेक मन्त्रों के प्रयोगों से शान्त कर सकते हैं। यानी सब उपद्रवों की औषधि शास्त्रों में मिल जाती है परन्तु मूर्ख के लिए कोई भी औषधि नहीं बनी है।
यह श्लोक हमें चेता रहा है कि मूर्ख व्यक्ति का कोई इलाज नहीं हो सकता। प्राकृतिक तापों से मनुष्य अपनी रक्षा कर सकता है। खूँखार पशुओं को भी मनुष्य प्रेम या कठोरता से वश में कर सकता है। उसी प्रकार हर रोग का भी उपचार किया जा सकता है। परन्तु मूर्ख व्यक्ति लाइलाज होता है। उसके लिए कित्तने भी उपाय कर लो परन्तु वह किसी की अच्छी बातों को न मानता है और न ही समझना चाहता है।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाए या उनसे किनारा कर लिया जाए या उनको मजाक का पात्र समझ लिया जाए। अपनी ओर से सदा ही उन्हें अपने प्रेम से या डाँट-फटकार से सुधारने का प्रयास करते रहना चाहिए। शायद कभी किसी क्षण, किसी की कही गई कोई बात उनके मन पर लग जाए या चुभ जाए और उनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाए। फिर वही समाज के दिग्दर्शक बन जाएँ।
महाकवि कालिदास जैसे महामूर्ख अपवाद स्वरूप इस धरा पर कभी-कभार ही जन्म लेते हैं। वे इतने मूर्ख थे कि जिन्हें इतना भी ज्ञान नहीं था कि जिस टहनी पर बैठकर उसे काट रहे हैं, उसके कटते ही वे स्वयं भी गिर जाएँगे। विधि का विधान था कि उन्हें परम विदुषी पत्नी मिली। उसके द्वारा घर से निकाला जाना उनके जीवन का टर्निग प्वाइंट बन गया था। मूर्ख होते हुए भी उन्होंने उस अपमान को अपने हृदय पर लिया। इसके फलस्वरूप विद्वानों की संगति और ईश्वर की उपासना करके वे उच्चकोटि के विद्वान् बने जिन्हें आज सम्पूर्ण विश्व नमन करता है।
इसलिए अपनी ओर से उन्हें सन्मार्ग पर लाने का प्रयास करते रहना चाहिए। उन्हें पशुवत या खिलौने की तरह न समझकर अपनी तरह ही इन्सान मानना चाहिए। उनके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए। हो सके तो कोई ऐसा कार्य उन्हें सिखा दिया जाए जिससे वे अपना पेट भरने के योग्य बन जाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद
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